Book Title: Jain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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१२० जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन (१०) निरन्तर स्वाध्याय से मन एकाग्र एवं स्थिर होता है। जीवन में नियमितता और
निर्विकारता आती है, जैसे अग्नि से सोने-चांदी का मैल दूर होता है, वैसे ही
स्वाध्याय से मन का मैल दूर हो जाता है। स्वाध्याय का महत्त्व
स्वाध्याय एक अभूतपूर्व तप है- 'तपो हि स्वाध्यायः' अर्थात् स्वाध्याय स्वयं में एक तप है। इसके तुल्य तप न कभी हुआ है, न वर्तमान में है और न भविष्य में होगा।७१ स्वाध्याय अपने आप में एक अद्भुत तप है।
सत्-शास्त्र का अध्ययन जीवन में अत्यन्त आवश्यक माना गया है और इसे तीसरा नेत्र भी कहा गया है। शास्त्र को नेत्र व्यष्टि की दृष्टि से नहीं बल्कि समष्टि अर्थात् समस्त जगत की दृष्टि से कहा गया है। सत्-शास्त्र के अध्ययन का महत्त्व व्यावहारिक जीवन की अपेक्षा आध्यात्मिक दृष्टि से अधिक है। स्वाध्याय के महत्त्व पर प्रकाश डालते हए भगवान महावीर ने कहा है - स्वाध्याय करते रहने से समस्त दुःखों से मुक्ति मिलती है।७२ जन्म-जन्मान्तरों से संचित किये हुए कर्म स्वाध्याय से क्षीण हो जाते हैं।७३ 'उत्तराध्ययन' में स्वाध्याय के फल को बताते हुए कहा गया है - स्वाध्याय एक प्रकार से ज्ञान की उपासना है, स्वाध्याय करने से ज्ञान-सम्बन्धी ज्ञानावरणीय कर्मों का क्षय हो जाता है।७४ 'आदिपुराण' के अनुसार स्वाध्याय करने से मन का निरोध होता है, मन के निरोध से इन्द्रियों का निग्रह होता है। अतः स्वाध्याय करने वाला व्यक्ति स्वत: संयमी और जितेन्द्रिय बन जाता है।७५ प्रख्यात दिगम्बर आचार्य अकलंक ने प्रज्ञातिशय, प्रशस्त अध्यवसाय, प्रवचनस्थिति, संयमोच्छेद, परवादियों की शंका का अभाव, परम संवेग, तपोवृद्धि, अतिचार-शुद्धि आदि के लिए स्वाध्याय करना आवश्यक बतलाया
____ अत: निश्चित रूप से धर्म-ग्रन्थों तथा आगमों का स्वाध्याय करने से बुद्धि निर्मल होती है, ज्ञान की वृद्धि होती है तथा वस्तु तत्त्वों की जानकारी होती है।
बौद्ध परम्परा बौद्ध ग्रन्थों में विभिन्न शिक्षण-विधियों का उल्लेख मिलता है जिसके आधार पर उसके निम्न भेद बनते हैं -
(१) पाठ-विधि, (२) शास्त्रार्थ-विधि, (३) उपमा-विधि, (४) प्रश्नोत्तर-विधि, (५) उपदेश-विधि, (६) प्रमाण-विधि, तथा (७) स्वाध्याय-विधि।
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