Book Title: Jain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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शिक्षा-पद्धति
१२१ पाठ-विधि
पाठ-विधि के द्वारा बालक के शिक्षारम्भ की नींव डाली जाती थी। लेखन एवं वाचन के द्वारा अंक एवं वर्णमाला का अभ्यास करवाया जाता था। इस विधि में गुरु बालक को चन्दन की पट्टिका पर लिपि अर्थात् वर्णमाला, अंक आदि लिखना सिखाते थे। 'ललितविस्तर'७७ में बोधिसत्व के चन्दन की पट्टिका पर संख्या, लिपि, गणना आदि सीखने का वर्णन आया है। इत्सिंग के अनुसार वर्णमाला में चालीस
अक्षर थे।७८
शास्त्रार्थ-विधि
इस विधि का प्रयोग प्राचीनकाल से ही होता आ रहा है। वाद-विवाद, खण्डन-मण्डन इस विधि के अंग हैं। इस विधि में तथ्य एक ही होता है, परन्तु उसकी प्राप्ति के लिए पूर्वपक्ष एवं उत्तरपक्ष विभिन्न तर्कों एवं युक्तियों का सहारा लेते हैं।
'विनयपिटक'७९ में चार प्रकार के अधिकरण का उल्लेख मिलता है जिससे शास्त्रार्थ-विधि का स्वरूप निर्धारित होता है(१) विवादाधिकरण- विवादित विषय के सम्बन्ध में निर्णय करना
विवादाधिकरण है। (२) अनुवादाधिकरण- शास्त्रार्थ के समय किसी विषय पर एक पक्ष द्वारा दूसरे
पक्ष को नियम के उल्लंघन का दोषी ठहराना अनुवादाधिकरण है। (३) आपत्ताधिकरण- भिक्षु द्वारा आचार सम्बन्धी सिद्धान्त का जान-बूझ कर
उल्लंघन करना आपत्ताधिकरण है। (४) किच्चाधिकरण- संघ सम्बन्धी नियम पर विचार करना किच्चाधिकरण
कहलाता है।
बौद्ध ग्रन्थ में किसी सिद्धान्त को शास्त्रार्थ के निमित्त प्रतिपादित करने को अनलोम तथा प्रतिपक्षी के उत्तर की संज्ञा को प्रतिकर्म (पटिकम्म) कहा गया है। इसी तरह प्रतिपक्ष के पराजय को निग्रह (निग्गह), प्रतिपक्ष के हेतु का उसी के सिद्धान्त में प्रयोग करने को उपनय तथा अन्तिम सिद्धान्त को निगमन कहा गया है।
ह्वेनसांग ने भी अपनी पुस्तक में लिखा है- शास्त्रार्थ का नियम प्रचलित होने के कारण विद्यार्थियों को कठिन से कठिन विषय भी शीघ्र हृदयंगम हो जाते थे, उनकी योग्यता बढ़ती थी और निराशजनों को उत्तेजना मिलती थी।८१
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