Book Title: Jain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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शिक्षा-पद्धति द्वारा ही जीव और जगत का पूर्ण एवं प्रामाणिक ज्ञान प्राप्त होता है। सम्यक्-ज्ञान ही प्रमाण है। सम्यक-ज्ञान के पाँच प्रकार होते हैं- मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्याय
और केवल। इनमें से प्रथम दो यानी मति और श्रुत परोक्ष ज्ञान हैं तथा अन्य तीन यानी अवधि, मन:पर्याय और केवल प्रत्यक्ष ज्ञान हैं। आचार्य उमास्वाति ने इन ज्ञानों का स्वरूप निर्धारण करते हुये कहा है कि मति ज्ञान इन्द्रिय और अनिन्द्रिय (मन) के माध्यम से उत्पन्न होता है तथा श्रुत ज्ञान मतिपूर्वक होता है जिसके दो, अनेक और बारह भेद होते हैं।४ ।
सामान्यतया प्रत्यक्ष में हम इन्द्रिय उपलब्धों को देखते हैं। इनकी स्मृति भी हमें स्पष्ट दिखायी पड़ती है। जैसे- आँख बन्द करके किसी वस्तु को देखते हैं तो उसे भी पहचान लेते हैं। परोक्ष ज्ञान में अनुमान का अंश भी होता है, किन्तु यह क्रिया स्मृति की सहायता से ही होती है। जैसे- दूर चमकीलापन दिखायी पड़ता है और हम कह बैठते हैं कि वहाँ रेत है। इसका अभिप्राय है हमने पहले भी कहीं रेत देखा है और विविध ज्ञानेन्द्रियों ने हमें विविध गुणों का बोध कराया है। इस समय की चमक पहले देखी हुई चमक के समान जान पड़ती है और हम कह बैठते हैं कि मैं रेत देख रहा हूँ। प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष का यह विश्लेषण अन्य दर्शनों में मिल सकता है जैन दर्शन में नहीं। न्याय दर्शन में इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष तथा शब्दादिजन्य ज्ञान को परोक्ष कहा गया है, किन्तु जैन दर्शन में प्रत्यक्ष और परोक्ष को ठीक इसके विपरीत विश्लेषित किया है। जैन दर्शन के अनुसार जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना केवल आत्मा की योग्यता से उत्पन्न होता है वह प्रत्यक्ष है तथा जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता से उत्पन्न होता है वह परोक्ष है। प्रत्यक्ष-परोक्ष का यह विश्लेषण जैन दर्शन में किया गया उत्तरवर्ती विश्लेषण है, क्योंकि आगमयुग में (ईसा पूर्व से ५वीं शती तक) जैन साहित्य में ज्ञानमीमांसा की ही प्रधानता रही है। प्रमाणान्तर्गत प्रत्यक्ष-परोक्ष का ज्ञानमीमांसा में प्रवेश आर्यरक्षित और उमास्वाति के काल में हुआ है, ऐसा माना जाता है। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार प्रमाण का प्रारम्भ करनेवालों में दो प्रमुख आचार्य हैं- आर्यरक्षित और उमास्वाति। आर्यरक्षित ने अनुयोग का प्रारम्भ पंचविध ज्ञान के सूत्र से किया है। उन्होंने प्रमाण की चर्चा ज्ञानगुण प्रमाण के अन्तर्गत की है। इसका निष्कर्ष है कि प्रमाणमीमांसा का मौलिक आधार ज्ञानमीमांसा ही है। उमास्वाति ने पहले पाँच ज्ञान की चर्चा की है, फिर ज्ञान प्रमाण है इस सूत्र की रचना की है।५ जैन विद्वान डॉ० सागरमल जैन भी ज्ञानमीमांसा में प्रमाणमीमांसा का आगमन ३री-४थी शताब्दी ही मानते हैं जो आर्यरक्षित और उमास्वाति का काल माना जाता है। उमास्वाति ने पंचज्ञान को ही दो भागों में विभाजित किया है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान
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