Book Title: Jain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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शिक्षा-पद्धति
शक्तियों का निरूपण करनेवाली कथा संवेजनी कहलाती है । 4
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(४) निर्वेदनी - रस आदि सात धातुओं से निर्मित शरीर अपवित्र है । रज और वीर्य उसका बीज है, अशुचि आहार उसका पोषक है, अशुचि स्थान से वह निकलता है, केवल अशुचि ही नहीं बल्कि असार भी है। स्त्री, वस्त्र, गन्ध, माला, भोजन आदि भोग प्राप्त होने पर भी उसकी तृप्ति नहीं होती। उसके प्राप्त होने पर या नष्ट हो जाने पर महान शोक होता है। देव और मनुष्य पर्याय दुःखबहुल हैं,
यहाँ सुख अल्प हैं - इस प्रकार शरीर और भोगों से विरक्त करनेवाली कथा निर्वेदनी है । ५२ इन कथाओं के स्वरूप को इस प्रकार भी व्यक्त कर सकते हैं- समदर्शी कला को यथायोग्य अनेकान्त मत का संग्रह करनेवाली कथा आक्षेपिणी, एकान्तवादी मतों का निग्रह करनेवाली कथा विक्षेपणी, पुण्य का फल बतलाने वाली कथा संवेजनी तथा संसार, शरीर और भोगों में वैराग्य उत्पन्न करानेवाली कथा निर्वेदनी है । ५३ इस प्रकार स्वाध्याय के द्वारा विद्यार्थी श्रुत की आराधना करता है, ज्ञान की उपासना करता है और ज्ञान के दिव्य प्रकाश से अपने जीवन को उज्ज्वल बनाता है।
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उपर्युक्त विधियों के अतिरिक्त 'आदिपुराण' में शिक्षा-विधि के निम्नलिखित भेद वर्णित हैं- (१) पाठ - विधि, (२) प्रश्नोत्तर - विधि, (३) शास्त्रार्थ - विधि, (४) उपदेशविधि, (५) नय - विधि, (६) उपक्रम या उपोद्घात - विधि और (७) पंचांग - विधि। इन विधियों का विवेचन प्रस्तुत है
(१) पाठ - विधि ४
इस विधि का प्रारम्भ आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेव से होता है। इसी विधि के द्वारा उन्होंने अपनी कन्याओं — ब्राह्मी और सुन्दरी को शिक्षा दी थी। इस विधि में गुरु विद्यार्थियों की काष्ठपट्टिका के ऊपर अंक या अक्षर लिख देते थे। विद्यार्थी उसका अनुकरण कर बार-बार लिखकर उसे कण्ठस्थ करते थे। शिक्षक द्वारा लिखे गये अंक और अक्षरों के लेखन एवं वाचन दोनों ही प्रक्रियाओं के द्वारा शिक्षार्थी अभ्यास भी करता था तथा अभ्यासात्मक प्रश्नों के उत्तर भी लिखता था । यह शिक्षा - विधि वर्तमान में भी अल्पायु छात्रों के लिए अत्यधिक उपयोगी है। पाठ- विधि के तीन उपभेद भी वर्णित हैं
(१) उच्चारण की स्पष्टता- पाठ विधि का प्रथम तत्त्व है उच्चारण की स्पष्टता । उच्चारण उनके स्थान एवं प्रयत्न के अनुसार सीखा जाता है। प्राचीन काल में शिक्षा ग्रन्थों में दी गई उच्चारण-विधि के अनुसार वर्णों का उच्चारण शिष्यों को सिखलाया जाता था। यह विधि वर्तमान में भी विद्यमान है।
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