Book Title: Jain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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११६ जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन (२) लेखनकला का अभ्यास- लेखनकला का अभ्यास पाठ-विधि का दूसरा
चरण है। इस कला का अभ्यास ब्राह्मी और सुन्दरी को कराया गया था। (३) तात्मक संख्या प्रणाली- किसी भी वस्तु को गिनने और उसकी संख्या
मालूम करने के लिए अंकज्ञान की आवश्यकता पड़ती है। पाठ-विधि के इस तीसरे तत्त्व के माध्यम से योग, गुणा, घटाव, भाग, वर्ग, वर्गमूल, धन एवं
धनमूल- इन आठ क्रियाओं का ज्ञान कराया जाता था। (२) प्रश्नोत्तर-विधि५
प्रश्नोत्तर-विधि में शिष्य प्रश्न करता था और गुरु प्रश्न का उत्तर देते थे। साथ ही गुरु भी शिष्य से प्रश्न पूछते थे। आदिपुराण में श्रेणिक प्रश्नकर्ता अर्थात् शिष्य के प्रतीक हैं तो गौतम गणधर उत्तरदाता अर्थात् गुरु के। बारहवें अध्ययन में देवियाँ विभिन्न प्रकार के प्रश्न माता से पूछती हैं और माता उसका चमत्कारपूर्ण उत्तर देकर उनके ज्ञान का संवर्धन करती हैं। समस्यापूर्ति एवं पहेली बुझाने की विधि भी इसके अन्तर्गत आती थी जिसका लक्ष्य क्रमश: बुद्धि को तीव्र बनाना तथा अनेक विषयों का ज्ञान प्राप्त कराना था। माता द्वारा दिये गये चमत्कारपूर्ण उत्तर का एक उदाहरण निम्नलिखित है- बच्चे माँ से प्रश्न करते हैं- “कुछ आदमी कड़कती धूप में खड़े थे, उनसे किसी ने कहा- “यह तुम्हारे सामने घनी छाँव वाला बड़ा भारी वट का वृक्ष खड़ा है" ऐसा कहने पर उनमें से कोई भी वहाँ नहीं गया। हे माता! कहिये यह कैसा आश्चर्य है? इसके उत्तर में माता ने कहा 'इस श्लोक'५६ में ‘वटवृक्षः' शब्द का ‘वटो ऋक्षः' इस प्रकार सन्धि विच्छेद करना चाहिए और अर्थ करना चाहिए रे लड़के! तेरे सामने यह मेघ के समान कान्तिवाला काला भालू बैठा है' ऐसा कहने पर भी कड़ी धूप में उसके पास कोई मनुष्य नहीं गया तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है?
इस प्रकार गुरु शिष्य के प्रश्नों का चामत्कारिक एवं तर्कपूर्ण उत्तर देकर शास्त्रीय ज्ञान का संवर्द्धन करते थे। इस प्रश्नोत्तर-विधि के माध्यम से गूढ़ और दुरुह विषय को भी सरलतापूर्वक समझाया जाता था जिससे विषयों को हृदयङ्गम करने में सरलता होती थी। इस विधि का प्रयोग प्रौढ़ और प्रतिभाशाली छात्रों के लिए किया जाता था। (३) शास्त्रार्थ-विधि
शास्त्रार्थ-विधि प्राचीन शिक्षा-पद्धति का मुख्य अंग थी। वर्तमान में भी यह विधि विद्यमान है। इस विधि में दो पक्ष होते हैं, एक पूर्व अर्थात् वादी तथा दूसरा उत्तर अर्थात् प्रतिवादी। दोनों ही अपने पक्ष की स्थापना के लिए विभिन्न तर्कों, विकल्पों का प्रयोग करते हैं। जैन न्याय के समस्त ग्रन्थों में शास्त्रार्थ-विधि का वर्णन पाया
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