Book Title: Jain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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शिक्षा-पद्धति
वह विचार पर्यायार्थिक नय कहलाता है। इसमें प्रथम अर्थात् द्रव्यार्थिक नय के तीन तथा द्वितीय अर्थात् पर्यायार्थिक नय के चार, कुल मिलाकर दोनों के सात भेद होते हैं(१) नैगम नय- जो विचार लौकिक रूढ़ि अथवा लौकिक संस्कार के
अनुसरण से पैदा होता है उसे नैगमनय कहते हैं अर्थात् अनिष्पन्न अर्थ में संकल्प मात्र को ग्रहण करना नैगम नय है, यथा- किसी काम के संकल्प से जानेवाले व्यक्ति से कोई पूछता है कि आप कहाँ जा रहे है तब वह कहता है- मैं साइकिल बनवाने जा रहा हूँ। जबकि वास्तव में
उत्तर देनेवाला साइकिल की मरम्मत करवाने जा रहा होता है। (२) संग्रह नय- सामान्य अथवा अभेद को ग्रहण करनेवाली दृष्टि संग्रह
नय है अर्थात् भेद सहित सब पर्यायों को अपनी जाति के अविरोध द्वारा एक मानकर सामान्य से सबको ग्रहण करना संग्रह है, जैसे वस्त्र
कहने से सभी प्रकार के वस्त्रों का ग्रहण हो जाता है। (३) व्यवहार नय- संग्रह नय के द्वारा गृहीत अर्थ का विधिपूर्वक अवहरण
या भेद करना व्यवहार नय है अर्थात् सामान्य को भेदपूर्वक ग्रहण करना, यथा- केवल वस्त्र कहने से किसी विशेष प्रकार के वस्त्र का बोध नहीं हो जाता बल्कि खादी का वस्त्र या मिल का वस्त्र- इस तरह के भेद
करने ही पड़ते हैं। (४) ऋजुसूत्र नय- भूत और भावी को छोड़कर वर्तमान पर्याय मात्र को
ग्रहण करना ऋजुसूत्र नय है। (५) शब्द नय- शब्द प्रयोगों में आनेवाले दोषों को दूर करके तदनुसार
अर्थ-भेद की कल्पना करना शब्द नय है। (६) समभिरूढ नय- शब्द-भेद के अनुसार अर्थ-भेद की कल्पना करना
समभिरूढ नय है। (७) एवंभूत नय- शब्द से व्युत्पत्ति-सिद्ध अर्थ के घटित होने पर ही
उस शब्द का वह अर्थ मानना। दूसरे शब्दों में जिस शब्द का जो अर्थ होता है, उसके होने पर ही उस शब्द का प्रयोग करना एवंभूत
नय है। (घ) अनुयोगद्वार-विधि- तत्त्वों के विस्तृत ज्ञान के लिए कुछ विचारणा
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