Book Title: Jain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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१०६ जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन अर्थात् अनिश्चितता की स्थिति से निकलकर निश्चितता में पहुँचना निक्षेप विधि है। जैन मान्यतानुसार प्रत्येक शब्द के कम से कम चार अर्थ निकलते हैं। वे ही चार अर्थ उस शब्द के अर्थ-सामान्य के चार विभाग हैं। ये विभाग ही निक्षेप या न्यास कहलाते हैं। निक्षेप-विधि के चार विभाग निम्नलिखित हैं
(१) नाम, (२) स्थापना, (३) द्रव्य और (४) भाव।
(१) नाम निक्षेप- जो अर्थ व्युत्पत्ति सिद्ध न हो अर्थात् व्युत्पत्ति की अपेक्षा किये बिना संकेतमात्र के लिए किसी व्यक्ति या वस्तु का नामकरण करना नाम-निक्षेप विधि है। जैसे एक ऐसा व्यक्ति जिसका नाम सेवक हो पर उसमें सेवक जैसा कोई गुण न हो। नाम-निक्षेप विधि ज्ञान प्राप्ति का प्रथम चरण है।
(२) स्थापना निक्षेप- वास्तविक वस्तु की प्रतिकृति, मूर्ति, चित्र आदि बनाकर अथवा बिना आकार बनाये ही किसी वस्तु में उसकी स्थापना करके मूल वस्तु का ज्ञान कराना स्थापना निक्षेप विधि है। जैसे किसी सेवक का चित्र या मूर्ति। इसके भी दो भेद हैं(क) सद्भाव स्थापना-सद्भाव स्थापना का अर्थ होता है मूल वस्तु अथवा
व्यक्ति की प्रतिकृति बनाना। यह प्रतिकृति काष्ठ, मृत्तिका, पाषाण, दाँत, सींग आदि की बनायी जाती है। इस प्रकार की प्रतिकृति बनाकर जो ज्ञान
कराया जाता है उसे सद्भाव स्थापना विधि कहते हैं। (ख) असद्भाव स्थापना- असद्भाव स्थापना में वस्तु की यथार्थ प्रतिकृति
नहीं बनायी जाती प्रत्युत् किसी भी आकार की वस्तु में मूल वस्तु की स्थापना कर दी जाती है। जैसे- शतरंज की मोहरों में राजा, वजीर आदि
की स्थापना कर दी जाती है। (३) द्रव्य निक्षेप- पूर्व और उत्तर अर्थात् भूत एवं बाद की स्थिति को ध्यान में रखते हुए वस्तु का ज्ञान कराना द्रव्य निक्षेप विधि है। जैसे- कोई व्यक्ति वर्तमान में सेवक का कार्य नहीं करता; किन्तु वह सेवा कार्य कर चुका है और भविष्य में करने वाला है।
(४) भाव निक्षेप- वर्तमान स्थिति को ध्यान में रखकर वस्तु स्वरूप का ज्ञान कराना भाव-निक्षेप विधि है। (ख) प्रमाण-विधि
संशय से रहित वस्तु का सम्यक्-ज्ञान कराना प्रमाण-विधि है। इस विधि के
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