Book Title: Jain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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चतुर्थ अध्याय शिक्षा-पद्धति
प्राचीन भारत में बालकों को गुरुकुल प्रणाली एवं स्वच्छ वातावरण में घरों से दूर आश्रमों में शिक्षा दी जाती थी। प्राचीनकाल से ही अरण्य शिक्षा के केन्द्र रहे हैं। गुरुकुल प्रणाली का मुख्य उद्देश्य बालकों में ज्ञान और सत्याचरण का संचार करना होता था। बालकों को मानवीय मूल्यों के प्रकाश से अवलोकित किया जाता था जिससे कि वे अपने व्यक्तित्व का भलीभाँति विकास कर सकें।
आचार व व्यवहार की शिक्षा आध्यात्मिक व शास्त्रीय ज्ञान के आधार पर दी जाती थी। बालक आध्यात्मिक ज्ञान तथा मानवीय मूल्यों से ओत-प्रोत शिक्षाएँ उदात्त चरित्र वाले गुरुओं की छत्रछाया में रहकर प्राप्त करते थे। वे बौद्धिक, मानसिक, शारीरिक एवं आत्मिक विकास पाकर आध्यात्मिकता के उत्कर्ष की प्राप्ति के लिए सर्वदा तत्पर रहते थे। यदि कहा जाये कि बालकों का पूर्ण शिक्षाक्रम चारित्रशुद्धि पर आधारित होता था तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी, क्योंकि गुरुकुल में मन, वचन एवं कायशुद्धि पर विशेष ध्यान दिया जाता था। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि शिक्षा के विशेष अंग थे। सुबह से शाम तक उनकी दिनचर्या चरित्र निर्धारक आचरणों से ओत-प्रोत रहती थी। सन्तोष, शुचिता, निष्कपट व्यवहार, जितेन्द्रियता, मितभाषण, शास्त्रानुकूल प्रवृत्ति आदि गुरुकुल निवास के मुख्य प्रयोजन थे।
गुरुकुल में- छात्र सहपाठियों एवं गुरुओं के साथ बड़े ही आनन्द एवं उल्लास के साथ अपने जीवन का शुभारम्भ करते थे (जहाँ छल, हिंसा, असत्य, चोरी आदि विविध विकारों का अभाव रहा करता था)। परिवार और समाज से दूर भिन्न-भिन्न जातियों, संस्कारों और समाजों के विद्यार्थी एक साथ रहते थे जिससे उनके अन्दर जातीयता की दीवार को तोड़कर प्रेम और सौम्यता का दीप प्रज्वलित होता था। गुरु और शिष्य का निकट सम्पर्क दोनों में आत्मीय एकता के सूत्र को जोड़नेवाला होता था। गुरु का अर्थ वहाँ केवल अध्ययन कराने वाले से नहीं होता था अपितु गुरु उस काल के पूर्ण व्यक्तित्व हुआ करते थे जो शिष्य के जीवन की समस्त जिम्मेदारियाँ अपने ऊपर लेकर चलते थे। शिष्य के जीवन में उच्च संस्कार तथा ज्ञान का आलोक प्रदान करते थे। इस तरह
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