Book Title: Jain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन एवं बौद्ध शिक्षा दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
कामतृष्णा- जो तृष्णा इन्द्रिय सुखों के लिए होती है उसे कामतृष्णा
कहते हैं।
भवतृष्णा — जो तृष्णा जीवन के लिए होती है वह भवतृष्णा है। विभवतृष्णा — जो तृष्णा वैभव और विलास के लिए होती है वह विभवतृष्णा है।
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तृष्णा सबसे बड़ा बन्धन है जो संसार तथा संसार के जीवों को बांधे हुए है। 'धम्मपद' में कहा गया है - धीर पुरुष लोहे, लकड़ी तथा रस्सी के बन्धन को दृढ़ नहीं मानते हैं। वस्तुतः सारवान पदार्थों में रत होना या मणि, कुण्डल, पुत्र तथा स्त्री में इच्छा का होना दृढ़ बन्धन है । ९५ पुनः मकड़ी का उदाहरण देते हुए कहा गया है - जिस प्रकार मकड़ी अपने ही जाल बुनती है और अपने ही उसमें बँधी रहती है, उसी प्रकार जीव भी तृष्णारूपी जाल में मकड़ी की भाँति बँधा रहता है । ९६. तृष्णा आदि सभी कारण अविद्या से उत्पन्न होते हैं। जरा-मरण, जाति, भव आदि का मूल कारण अविद्या ही है । अविद्या के कारण ही जीव इस भवचक्र में पड़ता है।
दु:ख निरोध
दुःख का नाश सम्भव है। दुःख के नाश को दुःख निरोध कहा जाता है। जब वासना, तृष्णा आदि सर्वथा नष्ट हो जाती हैं तब दुःख का नाश हो जाता है। दुःख नाश अर्थात् तृष्णा का त्याग, उससे अलग होना, उससे मुक्ति, उसे जीवन में स्थान न देना आदि। दुःख नाश के फलस्वरूप निर्वाण की प्राप्ति होती है। निर्वाण का अर्थ जीवन का समाप्त हो जाना नहीं होता, बल्कि दुःखों का समाप्त हो जाना होता है। दुःख का बुझ जाना निर्वाण है, जीवन का बुझ जाना नहीं । निर्वाण प्राप्त व्यक्ति की उपमा शैल से दी जाती है- जिस प्रकार प्रचण्ड झंझावात पर्वत को उसके स्थान से च्युत नहीं कर सकता, भयंकर आंधी के चलने पर भी पर्वत एक रस, अडिग, अच्युत बना रहता है, ठीक उसी प्रकार निर्वाण प्राप्त व्यक्ति रूप, रस, गन्धादि विषयों के थपेड़ों से जरा-सा भी विचलित नहीं होता है, बल्कि वह आस्रवों से रहित होकर अखण्ड शान्ति का अनुभव करता है । ९७
दुःखनिरोधगामिनी प्रतिपद्
चार आर्यसत्यों में चौथा है— दुःखनिरोध मार्ग । भगवान् बुद्ध ने केवल दुःखों के कारण ही नहीं बतलाये, बल्कि उन कारणों को दूर करके दुःख से छुटकारा पाने
का मार्ग भी प्रशस्त किया । दुःखनिरोध-मार्ग के रूप में इस आर्यसत्य के आठ अंग
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