Book Title: Jain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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८६ जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन शुद्ध ज्ञान की उत्पत्ति तब तक नहीं हो सकती जब तक कि उसे धारण करने की योग्यता शरीर में पैदा न हो।१०८ ज्ञान के उदय के लिए शरीर शुद्धि परमावश्यक है और शरीर शुद्धि तब तक नहीं हो सकती है, जब तक कि चित्तशुद्धि नहीं होती
और चित्तशुद्धि समाधि के द्वारा ही होती है। समाधि की चार अवस्थाएं हैं१. प्रथम अवस्था में साधक आर्यसत्यों पर विचार करते हुए विरक्ति, शुद्ध विचार
तथा अपूर्व आनन्द का अनुभव करता है। २. दूसरी अवस्था में मनन आदि प्रयत्न दब जाते हैं, तर्क-वितर्क आवश्यक हो जाते
हैं, सन्देह दूर हो जाते हैं तथा आर्यसत्यों के प्रति श्रद्धा बढ़ती है। इसमें चित्त
में स्थिरता आती है तथा आनन्द एवं शान्ति का परिज्ञान होता है। ३. तीसरी अवस्था में साधक आनन्द और शान्ति के प्रति उदासीन हो जाता है।
इसमें चित्त की साम्यावस्था और शारीरिक सुख का भाव भी रहता है। ४. यह अवस्था पूर्ण शान्ति की अवस्था होती है जिसमें सुख-दुःख सभी नष्ट हो
जाते हैं। इसमें चित्त की साम्यावस्था, शारीरिक सुख और ध्यान का आनन्दइनमें से किसी का विचार नहीं रहता है। यह पूर्ण शान्ति, पूर्ण विराग और पूर्ण
निरोध की अवस्था है। शील, समाधि, प्रज्ञा
शील, समाधि और प्रज्ञा बौद्धधर्म-दर्शन के तीन महनीय तत्त्व हैं जो त्रिरत्न के नाम से जाने जाते हैं। त्रिरत्न अष्टांगिक मार्ग के प्रस्तुतीकरण की एक प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत अष्टांगिक मार्ग समाहित हो जाते हैं, जैसे- सम्यक्-दृष्टि, सम्यक्-संकल्प, प्रज्ञा के अन्तर्गत आते हैं। सम्यक्-वाक्, सम्यक्-कर्मान्त और सम्यक्-आजीविका शील के अन्तर्गत आते हैं। इसी प्रकार सम्यक्-व्यायाम, सम्यक्-स्मृति और सम्यक्-समाधि, समाधि के अन्तर्गत आते हैं। अत: शील, समाधि और प्रज्ञा के रूप में भी निर्वाण मार्ग का प्रतिपादन होता है।
शील- शील से तात्पर्य सात्विक कार्यों से है। इसके पाँच प्रकार बताये गये हैं-- अहिंसा, अस्तेय, सत्य भाषण, ब्रह्मचर्य तथा नशा का त्याग। इन्हें पंचशील की संज्ञा दी गयी है।
समाधि- समाधि का वर्णन ऊपर किया गया है।
प्रज्ञा- शील और समाधि का फल है प्रज्ञा का उदय। जब तक प्रज्ञा का उदय नहीं होता है तब तक अविद्या का नाश नहीं होता है। प्रज्ञा के तीन प्रकार
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