Book Title: Jain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन एवं बौद्ध शिक्षा के उद्देश्य एवं विषय
७९ (८) अज्ञान (अण्णाण)- नृत्य, काव्य, नाटक, संगीत आदि लौकिक श्रुतशास्त्र। (९) मिथ्याप्रवान (मिच्छापवयण)- बुद्ध शासन आदि कुतीर्थिक मिथ्यात्वियों के
शास्त्रा
बौद्ध परम्परा बौद्ध दर्शन का भी हमारे देश की शिक्षा के स्वरूप निर्धारण में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। बौद्ध शिक्षा के स्वरूप को संक्षेप में 'भाध्यमिककारिका' के निम्नलिखित श्लोक से समझा जा सकता है
द्वे सत्ये समुपाश्रित्य बुद्धानां धर्मदेशना।
लोक संविति सत्यं च सत्यं च परमार्थना।।८१ अर्थात् शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है जो मनुष्य को लौकिक एवं पारमार्थिक दोनों जीवन के योग्य बनाती है। पारमार्थिक जीवन से तात्पर्य निर्वाण से है। अत: बौद्ध दर्शन के अनुसार वास्तविक शिक्षा वह है जो मनुष्य को निर्वाण की प्राप्ति कराये।
आचार्य बलदेव उपाध्याय ने बौद्ध-शिक्षा का उद्देश्य बताते हुए कहा है-बुद्ध किसी भी तथ्य को विश्वास की कच्ची नींव पर रखना नहीं चाहते थे, प्रत्युत् तर्कबुद्धि की कसौटी पर सब तत्त्वों को कसना बुद्ध की शिक्षा का प्रधान उद्देश्य था।८२ आध्यात्मिक शिक्षा का उद्देश्य
बौद्ध शिक्षा निवृत्तिप्रधान है। इसका उद्देश्य जीवन में निर्वाण प्राप्त करना है। निर्वाण की व्याख्या विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न प्रकार से की है। कुछ विद्वानों ने निर्वाण का अर्थ 'जीवन का अन्त' किया है तो कुछ ने 'बुझ जाना'। किन्तु बौद्ध परम्परा में निर्वाण शब्द का अर्थ होता है- वासना की अग्नि का बुझ जाना। निर्वाण में लोभ, घृणा, क्रोध और भ्रम की अग्नि बुझ जाती है। कामास्रव, भवास्रव एवं अविद्यास्रव आदि मन की अशुद्धि का नष्ट हो जाना निर्वाण है।८२ 'धम्मपद' में निर्वाण को एक आनन्द की अवस्था, परमानन्द, पूर्ण शान्ति और दुःखों का अन्त कहा गया है। इस आनन्द की अवस्था को प्राप्त करना ही आध्यात्मिक शिक्षा का उद्देश्य है। लौकिक शिक्षा का उद्देश्य
शिक्षा ही एक ऐसा माध्यम है जो मनुष्य को इस योग्य बनाती है कि वह समाज में एक विनीत एवं योग्य नागरिक के रूप में रह सके तथा अप्रत्यक्ष रूप
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