Book Title: Jain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन एवं बौद्ध शिक्षा दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
में से कुछ ऐसे अंशों को ग्रहण करना चाहता है जिस पर वह अपनी संज्ञा को प्रतिष्ठित कर सके। ऐसी स्थिति में शिक्षा के लिए शिक्षा दर्शन के द्वारा मौलिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन ही उसकी दार्शनिक समस्या बन जाती है।
जैन-बौद्ध परम्पराएँ एवं शिक्षा दर्शन
शिक्षा सामान्यतः दो उद्देश्यों की पूर्ति के लिए दी जाती है— लौकिक उपलब्धि तथा पारलौकिक उपलब्धि । लौकिक उपलब्धि अर्थात् लौकिक सुख-सुविधाओं की पूर्ति और पारलौकिक उपलब्धि अर्थात् स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति । जैन एवं बौद्ध दोनों ही परम्पराएँ निवृत्तिमार्गी हैं। अतः उनमें पारलौकिक उपलब्धियाँ ही प्रधानता रखती हैं, पर ऐसा नहीं कहा जा सकता कि लोक से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है। यदि ऐसा होता तो जैन परम्परा के आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेव असि, मषि और कृषि के साथ ही लिपि, गणित और विभिन्न कलाओं की शिक्षा नहीं देते। उनके द्वारा असि, मषि, कृषि आदि की शिक्षा देना ही प्रमाणित करता है कि उनका ध्यान परलोक के साथ-साथ लोक पर भी था। बौद्ध परम्परा के प्रतिष्ठापक गौतम बुद्ध ने तत्त्वमीमांसीय प्रश्नों को त्याग कर सांसारिक दुःख और उससे मुक्ति पाने पर विचार किया जिसके कारण उन्हें ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण भारतीय दर्शन को निराशावादी कहा गया, परन्तु उन्होंने भी जब चौथे आर्यसत्य में अष्टाङ्ग मार्ग का प्रतिपादन किया तो उसमें सम्यक्-आजीव नाम का एक पक्ष रखा जो यह बताता है कि व्यक्ति को अपनी जीविका उचित ढंग से अर्जित करनी चाहिए। इस सिद्धान्त का सम्बन्ध लौकिकता और पारलौकिकता दोनों से ही है । आजीविका के साथ औचित्य का निर्वाह सामाजिक व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने और पारलौकिकता के लिए सन्मार्ग निरूपित करने में सहायक होता है। इसके अतिरिक्त यह भी समझा जा सकता है कि लोकमर्यादा को अवहेलित करके परलोक मर्यादा की पुष्टि बहुत हद तक सम्भव नहीं है। ऐसी स्थिति में कोई भी परम्परा मात्र परलोक को ही अपने ध्यान में रखकर चले तो उसका समाज में अपना अस्तित्व बनाये रखना सम्भव नहीं है। यही कारण है कि जैन एवं बौद्ध परम्पराओं ने शिक्षा की दोनों उपलब्धियों को अपने में समाहित किया है। लौकिक मर्यादाएँ जिस रूप में भी स्वीकार की गयी हैं वे पारलौकिक उपलब्धियों के साधन अथवा साधन की पुष्टि के रूप में हैं। जैन एवं बौद्ध परम्पराओं में शिक्षा के तत्त्व लौकिक एवं पारलौकिक दोनों उपलब्धियों को प्राप्त करने की दृष्टि से प्रतिपादित किये गये हैं।
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