Book Title: Jain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन एवं बौद्ध धर्म-दर्शन तथा उनके साहित्य ग्यारहवें अध्ययन में मान, क्रोध, प्रमाद, रोग और आलस्य आदि पाँच स्थानों को ज्ञान प्राप्ति का बाधक बताया गया है।५४ विनीत शिक्षार्थी के लक्षणों को प्रकाशित करते हुये कहा गया है कि जो सदा गुरुकुल में रहकर योग और तप साधना करता है, प्रियकारी है और प्रिय बोलता है, वह शिष्य ही शिक्षा का अधिकारी होता है।५५ वह पुरुषों में उसी प्रकार श्रेष्ठ है, जैसे पर्वत में मेरु।
___ बारहवाँ अध्ययन चाण्डाल कुल में उत्पन्न हरिकेशबल का शिक्षा प्राप्त कर भिक्षु रूप में ब्राह्मण की यज्ञशाला में भिक्षा के लिए जाना तथा अविनीत शिष्य द्वारा उन पर डण्डों से प्रहार करने से सम्बन्धित है।
सत्रहवें अध्ययन में पाप श्रमण का वर्णन किया गया है। जो श्रमण (भिक्षु) होकर यथेच्छ भोजन कर सदा निद्राशील रहता है वह पाप श्रमण कहलाता है। जो गुरुओं की आज्ञा का पालन नहीं करता, उनसे श्रुत और विनय प्राप्त करने के बाद उनकी निन्दा करता है, वह पाप श्रमण है। इसलिए साधक को दोषों का परित्याग कर व्रतों को ग्रहण करना चाहिए।५६
सत्ताइसवें अध्ययन में विनीत तथा अविनीत शिष्य को दुष्ट बैल द्वारा उपमित किया गया है। अविनीत शिष्य उस दुष्ट बैल की तरह है जो मार्ग में गाड़ी तोड़ देता है और मालिक को कष्ट पहुँचाता है।५७ साथ ही, बताया गया है कि अविनीत शिष्य से रुष्ट होकर गर्गाचार्य अपने शिष्यों को छोड़कर एकान्तवास में तप करने चले गये।५८
बत्तीसवें अध्ययन में मुक्ति के उपाय बताये गये हैं। गुरुजनों और वृद्धों की सेवा करना, एकान्त में निवास करना, सूत्र और अर्थ का चिन्तन करना धैर्य रखना आदि दुःख से मुक्त होने के उपाय हैं। दशवैकालिक
मूल आगमों में 'दशवैकालिक' का महत्त्वपूर्ण स्थान है । इसके रचयिता शय्यम्भव हैं। इस आगम के दो नाम उपलब्ध होते हैं- 'दसवैयालिय' और 'दसकालिया ५९ 'दशवैकालिक' 'दश' और 'कालिक' दो शब्दों के योग से बना है जिसमें 'दश' शब्द अध्ययन का सूचक है और 'कालिक' विकाल का, बेला का। इसकी रचना अपराह्न में शुरु हुई और विकाल में पूरी हुई, इसलिए इसे 'दशवैकालिक' कहते हैं। दूसरी मान्यता है कि इसे स्वाध्याय काल के बिना किसी भी समय पढ़ा जा सकता है इसलिए इसका नाम ‘दशवैकालिक' रखा गया है। आचार्य हरिभद्र और समयसुन्दर ने इस पर टीका तथा आचार्य भद्रबाहु ने नियुक्ति लिखी है। इसकी महत्ता की पुष्टि इस बात से होती है कि प्राचीनकाल में 'आचारांग' के प्रथम श्रुतस्कन्ध पढ़ने के बाद 'उत्तराध्ययन' पढ़ा
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