Book Title: Jain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन एवं बौद्ध धर्म-दर्शन तथा उनके साहित्य ३७ बना रहता है, स्नेह से तृष्णा उत्पन्न होती है जो दोषों को ढक लेती है। गुणदर्शी पुरुष इस विचार से कि 'विषय मेरे हैं' साधनों को ग्रहण करता है। तृष्णा से उपादान की उत्पत्ति होती है। अत: जब तक आत्माभिनिवेश है तब तक यह संसार है। आत्मा के रहने पर ही पर का ज्ञान होता है। स्व और पर के विभाग से राग-द्वेष की उत्पत्ति होती है और राग-द्वेष के कारण ही समस्त दोष उत्पन्न होते हैं। अत: इसको हटाने से ही सभी दोषों का निराकरण हो सकता है।३५ ___ परन्तु ऐसा नहीं है कि बुद्ध ने आत्मा की सत्ता को स्वीकार ही नहीं किया है बल्कि उन्होंने आत्मा की पारमार्थिक सत्ता को छोड़कर व्यावहारिक सत्ता को स्वीकार किया है। बुद्ध के अनुसार आत्मा की व्यावहारिक सत्ता है जो रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार तथा विज्ञान आदि पञ्चस्कन्धों का समुदाय मात्र है। इनके अतिरिक्त आत्मा कोई स्वतन्त्र परमार्थभूत पदार्थ नहीं है। अत: बौद्ध दर्शन पञ्चस्कन्धों के संघात को ही आत्मा मानता है। संघात के कारण ही मनुष्य अथवा आत्मा का बोध होता है, संघात न हो तो न मनुष्य की प्रतीति हो सकती है और न आत्मा की ही। इस संघात के विषय में नागसेन तथा राजा मिलिन्द का संवाद अतिप्रसिद्ध है। मिलिन्द ने नागसेन से आत्मा के सम्बन्ध में प्रश्न किया जिसका उत्तर नागसेन ने संघातवाद को प्रस्तुत करते हुये दिया, किन्तु नागसेन के उत्तर से मिलिन्द को सन्तुष्टि नहीं हुई। नागसेन ने रथ का उदाहरण सामने रखा। नागसेन ने राजा मिलिन्द से पूछा, राजन्! आप पैदल यहाँ आये हैं अथवा किसी वाहन से। राजा ने उत्तर दिया- मैं रथ पर सवार होकर आया हूँ। तब नागसेन ने पूछा- रथ क्या है? क्या चक्र को रथ कहते हैं? क्या नेमि को रथ कहते हैं या जुआ को रथ कहते हैं? राजा ने इन सभी प्रश्नों का उत्तर नकारात्मक ढंग से दिया। तब नागसेन ने उन्हें समझाया। इन विभिन्न अंगों में जो संघात है, समन्वय है, उसे ही रथ कहते हैं। अलग से रथ जैसी कोई चीज नहीं है। यदि रथ जैसी कोई चीज अलग से अपना अस्तित्व रखती तो अंगों के अलग हो जाने पर भी रथ हमारे सामने होता अथवा रथ का कार्य होता, किन्तु ऐसा होता नहीं है। इसलिए हे राजन्! जिस प्रकार चक्र, नेमि, जुआ आदि विभिन्न अंगों के संघात का नाम रथ है, उसी प्रकार पञ्चस्कन्धों के संघात का नाम आत्मा है।३६ आत्मा, जीव, सत्ता, पुद्गल, मन, चित्त, विज्ञान आदि शब्द एक दूसरे के पर्यायवाची तथा समानार्थक हैं। बौद्धानुयायी आत्मा के लिये एक विशेष शब्द 'सन्तान' का प्रयोग करते हैं। यद्यपि बुद्ध ने आत्मा की स्वतंत्र एवं नित्य सत्ता को स्वीकार नहीं किया है फिर भी उन्होंने मानसिक वृत्तियों को सहर्ष स्वीकार किया है। हमारी मानसिक वृत्तियाँ, जैसे- आँखें कोई खट्टी चीज को देखती हैं और जिह्वा से पानी टपकने लगता है, नाक दुर्गन्ध सूंघती है और हाथ नाक पर पहुँच जाता है। जबकि
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