Book Title: Jain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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३२ जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन आयुष्य, नामावरणीय, गोत्र और अन्तराय। आठ कर्मों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
___ ज्ञानावरणीय- मोह के उदय से व्यक्ति जो कुछ भी करता है वह सकर्मात्मा है। सकर्मात्मा अशुभ कर्म का बन्धन करती है और उससे ज्ञान आवृत्त होता है। ज्ञान को आच्छादित करके उसके प्रकाश को घटा देनेवाली प्रकृति ज्ञानावरणीय-कर्म है। जिस प्रकार बादल सूर्य के प्रकाश को ढंक देते हैं, उसी प्रकार जो कर्मवर्गणाएँ आत्मा की ज्ञानशक्ति को ढंक देती हैं और ज्ञान-प्राप्ति में बाधक बनती हैं वे ज्ञानावरणीय कर्म हैं।
दर्शनावरणीय- दर्शन को आवृत्त करके उसके प्रकाश को घटानेवाली प्रकृति दर्शनावरणीय-कर्म है। ज्ञान से पूर्व होनेवाला वस्तुतत्त्व का निर्विशेष बोध जिसमें किसी विशेष गुणधर्म की प्राप्ति नहीं होती दर्शन है। दर्शनावरणीय-कर्म आत्मा के इसी दर्शन गुण को आवृत्त करता है।
वेदनीय- इष्ट और अनिष्ट बाह्य विषयों या भोगों का संयोग व वियोग कराने वाली प्रकृति वेदनीय-कर्म है। इसके दो प्रकार हैं- साता और असाता। इष्ट शरीर, इष्ट कुल और इष्ट भोगों को प्राप्त करानेवाली प्रकृति सातावेदनीय तथा इसके विपरीत भोगों को प्राप्त करानेवाली प्रकृति का नाम असातावेदनीय है।
मोहनीय- चेतना को विकृत या मूर्च्छित करनेवाली प्रकृति मोहनीय-कर्म है। जिस प्रकार नशीली वस्तु के सेवन से विवेकशक्ति कुंठित हो जाती है उसी प्रकार जिन कर्म-पुद्गलों से आत्मा की विवेकशक्ति कुंठित हो जाती है और अनैतिक आचरण में प्रवृत्ति होती है वे मोहनीय-कर्म कहलाती हैं। मोहनीय प्रकृति के कारण ही आत्मा में राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं।
आयुष्य- नारक, देव, मनुष्य व तिर्यंच गतियों या शरीरों में किसी निश्चित कालपर्यन्त तक जीवद्रव्य को रोक रखनेवाला आयुष्य-कर्म है।
नाम- शरीर के विभिन्न अंगों का यथायोग्य निर्माण होना नाम-कर्म के उदय पर आधारित होता है। शुभ नाम-कर्म के उदय से जीव शारीरिक और वाचिक उत्कर्ष की ओर बढ़ता है तथा अशुभ नाम-कर्म के उदय से जीव शारीरिक और वाचिक अपकर्ष को प्राप्त करता है। हमारे पूरे शरीर का निर्माण, यश-अपयश, सुन्दर-असुन्दर, सौभाग्यदुर्भाग्य आदि नाम-कर्म पर ही निर्भर करते हैं। मनोविज्ञान की भाषा में नाम-कर्म को व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्धारक तत्त्व कहा जा सकता है।
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