Book Title: Jain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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२६ जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन थे। इस प्रकार ऐतिहासिक अस्तित्व के विषय में जो भी साहित्यिक प्रमाण उपलब्ध होते हैं उनके आधार पर हम इतना तो कह सकते हैं कि वे कोई काल्पनिक व्यक्ति नहीं थे। परम्परा की दृष्टि से उनके सम्बन्ध में हमें जो भी सूचनायें उपलब्ध हैं उनको पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकता है। उनमें कहीं न कहीं सत्यांश अवश्य है। जहाँ तक जैन ग्रन्थों का प्रश्न है उनके जीवनवृत्त का उल्लेख हमें जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति,आवश्यकचूर्णि एवं जैन पुराणों तथा चरित काव्यों में विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है।
ऋषभदेव का जन्म अन्तिम कुलकर नाभि की महारानी मरुदेवी के गर्भ से हुआ। सामाजिक व्यवस्था के रूप में ऋषभदेव ने सर्वप्रथम असि (सैन्यवृत्ति), मषि (लिपिविद्या)
और कृषि की शिक्षा दी। कोई बाहरी शक्ति राज्य शक्ति को चुनौती न दे इसलिए सैन्यव्यवस्था को संगठित किया। अपनी दोनों पुत्रियों को लिपिज्ञान कराकर शिक्षा-व्यवस्था की नींव डाली। अपनी प्रथम पुत्री ब्राह्मी को दाहिने हाथ से अट्ठारह लिपियों का ज्ञान कराया तथा द्वितीय पुत्री सुन्दरी को बायें हाथ से गणित का अध्ययन कराया जिसके अन्तर्गत मान, उन्मान, अवमान, प्रतिमान आदि मापों से अवगत कराया। ब्राह्मी को अ, आ, इ, ई, उ, ऊ आदि को पट्टिका पर लिखकर वर्णमाला का ज्ञान कराया।११ शिक्षा को सुदृढ़ करने के लिये पुरुषों को बहत्तर कलाओं व स्त्रियों को चौसठ कलाओं का परिज्ञान कराया। ऋषभदेव ने ही लोगों को अग्नि जलाना, भोजन बनाना, बर्तन बनाना, वस्त्र आदि बनाने की विधियाँ बतायीं। घोड़े, हाथी, गाय आदि पशुओं का उपयोग करना लोगों को सिखाया।१२ कर्म के आधार पर क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र तीन वर्गों की स्थापना की।१३ पार्श्वनाथ
__पार्श्वनाथ वर्तमान अवसर्पिणी काल के तेइसवें तीर्थङ्कर थे। उनके पिता का नाम अश्वसेन, माता का नाम वामा और जन्मस्थान वाराणसी था। पार्श्वनाथ तीस वर्ष तक गृहस्थावस्था में रहे, ७० वर्ष साधु-जीवन व्यतीत किया और ८४ दिन घोर तप करने के पश्चात् उन्हें कैवल्यज्ञान की प्राप्ति हुई। तत्पश्चात् उन्होंने अपने साधु जीवन में अहिच्छत्रा, श्रावस्ती, साकेत, राजगृह, हस्तिनापुर और कौशाम्बी आदि नगरों में परिभ्रमण किया तथा अनार्य जातियों में उपदेश का प्रचार कर सम्मेदशिखर पर सिद्धि प्राप्त की।१४
पार्श्वनाथ ने श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका नाम से चार संघों की स्थापना की और उसकी देखभाल के लिए गणधरों की नियुक्ति की। उन्होंने बिना किसी जाति-पाति या लिंग भेद-भाव के चारो वर्णों और स्त्रियों के लिए धर्म का मार्ग खोल दिया। तप, त्याग और इन्द्रिय-निग्रह पर उन्होंने विशेष बल दिया तथा वेद-विहित हिंसा के विरुद्ध
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