Book Title: Jain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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२४ जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन कि वह किसी का अनुकरण नहीं है और इसलिए प्राचीन भारतवर्ष के तत्त्वज्ञान और धर्म-पद्धति के अध्ययन करनेवालों के लिए बड़े महत्त्व की चीज है।"३ जैन धर्म की प्राचीनता पर प्रकाश डालते हुए लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने अपने 'केसरी' समाचारपत्र में लिखा है- 'श्री महावीर स्वामी जैन धर्म को पुन: प्रकाश में लाये, इस बात को आज २५०० वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। बौद्ध धर्म से पहले भी जैनधर्म भारत में फैला हुआ था, यह बात विश्वास करने योग्य है। महावीर स्वामी चौबीस तीर्थङ्करों में अन्तिम तीर्थङ्कर थे, इससे भी जैन धर्म की प्राचीनता जानी जाती है।'४ डॉ० सतीशचन्द्र विद्याभूषण ने कहा है- 'जैन धर्म तब से संसार में प्रचलित है, जब से सृष्टि का आरम्भ हुआ है। मुझे इसमें किसी बात का उज्र नहीं कि यह वेदान्त आदि दर्शनों से पूर्व का है। ५ इन सब विद्वानों के वक्तव्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन धर्म स्वतन्त्र धर्म है, बौद्ध धर्म से उसका अलग अस्तित्व है तथा इसका विकास छठी ई०पू० में हुआ
था।
जैन धर्म में अब तक चौबीस तीर्थङ्कर हो चुके हैं। इसके संस्थापक के रूप में प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव का नाम आता है। उनके पश्चात् जैन धर्म में तेईस तीर्थङ्कर हुए जिनमें २१, २२वें तथा २३वें तीर्थङ्कर क्रमश: भगवान् अरिष्टनेमि, भगवान् पार्श्वनाथ तथा भगवान् महावीर माने जाते हैं। ऋषभदेव
जैन धर्म में दो प्रकार के काल माने गये हैं— अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी। जिन्हें छ: कालों में बाँटा गया है- सुषमा-सुषमा (सुख-सुख), सुषमा (सुख), सुषमा-दुषमा (सुख-दुःख), दुषमा-सुषमा (दुःख-सुख), दुषमा (दुःख) और दुषमा-दुषमा (दुःख-दुःख)। यह संसार एक बार सुख से दुःख की ओर जाता है तो दूसरी बार दुःख से सुख की
ओर आता है। जब कालचक्र सुख से दुःख की ओर घूमता है तब उसे अवसर्पिणी काल कहते हैं और जब दुःख से सुख की ओर घूमता है तब उसे उत्सर्पिणी काल कहते हैं। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी में करोड़ों वर्ष होते हैं और इन दोनों में हर एक के दुषमा-सुषमा भाग में २४ तीर्थङ्करों का प्रादुर्भाव होता है। सुषमा-दुषमा नाम के तीसरे काल में १५ कुलकरों का जन्म होता है। वर्तमान कालचक्र के कुलकर तथा तीर्थङ्कर हो चुके हैं। जैन परम्परा इस अवसर्पिणी काल में जैन धर्म का प्रारम्भ भगवान् ऋषभदेव से मानती है। ऋषभदेव इस युग की मानवीय सभ्यता के आदिपुरुष माने जाते हैं। वे न केवल प्रथम तीर्थंकर थे अपितु जैन मान्यतानुसार वे मानवीय सभ्यता के आदि पुरोधा भी थे। समाज व्यवस्था, राज्य व्यवस्था और धर्म व्यवस्था तीनों के आदि पुरोधा माने गये हैं। इस देश में ऋषि, मुनि को जिस निवृत्तिमार्गी परम्परा का विकास हुआ
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