Book Title: Jain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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१६ जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन शिक्षा-दर्शन की सामाजिक समस्यायें
समाज में ऊँच-नीच छोटे-बड़े का भेद-भाव देखा जाता है। वह जाति ऊँची है तो वह जाति नीची है। नर-नारी के बीच भी यह भेदभाव देखा जाता है। समाज में पुरुष को श्रेष्ठ माना जाता है तो महिलाएँ हीन समझी जाती हैं। समाज के पथ-प्रदर्शक यह शिक्षा देते हुए देखे जाते हैं कि सभी मनुष्य बराबर हैं, कोई बड़ा या छोटा नहीं है, सबके अधिकार और कर्तव्य समान हैं। परन्तु ऐसा होता नहीं है क्योंकि इसके पीछे मानव विसंगतियाँ कार्य करती हैं। इस भेद-भाव को दूर करने के लिए समाज में कैसी शिक्षा दी जानी चाहिए जिससे कि समाज में समता और सद्भाव के बीज वपन हो सकें? इसका उत्तर शिक्षा-दर्शन अपनी तत्त्वमीमांसीय मीमांसा के आधार पर यह प्रतिपादित करता है कि सभी प्राणी मूलतः समान हैं क्योंकि पंचतत्त्वों से बना हुआ शरीर और उसमें पायी जानेवाली चेतना सभी में समान है। यदि कोई अन्तर है तो वह कर्मणा है, जन्मना नहीं। शिक्षा-दर्शन की आर्थिक समस्यायें
शिक्षा में आर्थिक समस्यायें तब उत्पन्न होती हैं जब किसी न किसी रूप में शिक्षा और अर्थ का सम्बन्ध आवश्यक हो जाता है। शिक्षा और अर्थ दो तरह से सम्बन्धित होते हैं- (क) शिक्षा के लिए अर्थ तथा (ख) अर्थ के लिए शिक्षा।
प्राचीनकाल में शिक्षक और शिक्षार्थी जंगलों में रहा करते थे और उनकी आवश्यकतायें बहुत कम थीं। परन्तु धीरे-धीरे शिक्षक और शिक्षार्थी की आवश्यकतायें बढ़ती गयीं और शिक्षा के लिए अर्थ का महत्त्व भी बढ़ता गया। शिक्षा के लिए पाठशाला, भवन, विद्यार्थियों के लिये छात्रावास, शिक्षकों के लिये वेतन इत्यादि ऐसी अनिवार्यताएँ सामने आती गयीं जिन्हें छोड़कर बदलते हुए परिवेश में शिक्षा देना अथवा ग्रहण करना सम्भव नहीं माना गया और अर्थ शिक्षा के साधन के रूप में सामने आया। यह भी बात दृष्टि में आयी कि शिक्षा ग्रहण करके कोई व्यक्ति क्या कर सकता है? भविष्य में शिक्षा का क्या उपयोग होगा? तो लौकिक दृष्टि से यह समझा गया कि शिक्षा प्राप्त करके कोई व्यक्ति नौकरी कर सकता है, व्यवसाय कर सकता है और अर्थोपार्जन करके अपना जीवन सुखी बना सकता है। यहाँ पर अर्थ साध्य और शिक्षा साधन के रूप में देखी गयी। अर्थ को शिक्षा के साधन अथवा साध्य के रूप में यदि मान्यता दी जाती है तो उसकी कौन-सी सीमा या मर्यादा हो सकती है, किस हद तक अर्थ शिक्षा का साधन या साध्य हो सकता है। इस प्रश्न का उत्तर शिक्षा ही देती है और यहीं शिक्षा-दर्शन के समक्ष आर्थिक समस्या आती है कि वह शिक्षा और अर्थ के
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