Book Title: Jain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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शिक्षा-दर्शन : एक सामान्य परिचय
१३ किसी एक के अभाव में ज्ञानरूपी गाड़ी नहीं चल पाती। शिक्षा और दर्शन एक-दूसरे के सहायक हैं। दर्शन के बिना शिक्षा के उद्देश्य का निर्धारण नहीं किया जा सकता है और शिक्षा के बिना दार्शनिक विचारों की अभिव्यक्ति नहीं हो सकती।
लेकिन कुछ विचारक ऐसे हैं जो शिक्षा को ही प्रधानता देते हैं तथा दर्शन को शिक्षा का सामान्य सिद्धान्त मानते हैं। इस विचारधारा के समर्थकों में जॉन डीवी का नाम प्रमुख है। डीवी ने स्पष्ट लिखा है कि 'शिक्षा-दर्शन में बाहर से सिद्धान्त बनाकर लागू नहीं किये जा सकते। शिक्षा-दर्शन में तो तत्कालीन सामाजिक जीवन की कठिनाइयों के प्रति उचित दृष्टिकोण बनाने की समस्या का स्पष्टीकरण होता है। अत: शिक्षा-दर्शन को बाह्य सिद्धान्तों का व्यवहृत रूप नहीं समझना चाहिए। उनके अनुसार तो दर्शन स्वयं ही शिक्षा का सिद्धान्तीकरण है।'४० अभिप्राय है कि दर्शन ही शिक्षा-दर्शन है अथवा दर्शन को शिक्षा-दर्शन होना चाहिए। शिक्षा-दर्शन के विषय
शिक्षा का विषय सम्पूर्ण मानव जीवन है क्योंकि शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है और उसका सम्बन्ध मानव के सम्पूर्ण जीवन से होता है। शिक्षा-दर्शन के अन्तर्गत हम विभिन्न दर्शनों द्वारा निश्चित शिक्षा के स्वरूप, उद्देश्य, पाठ्यचर्या और शिक्षण विधियों का अध्ययन करते हैं। शिक्षा की प्रक्रिया में शिक्षक-शिक्षार्थी के सापेक्षिक महत्त्व पर प्राय: सभी दार्शनिक विचारधाराओं ने अपने विचार व्यक्त किये हैं। शिक्षा-दर्शन में अनुशासन पर विशेष बल दिया गया है। सभी शिक्षाविदों ने अपनी-अपनी दृष्टि से अनुशासन पर विचार किया है। शिक्षा-दर्शन के विषय के अन्तर्गत शिक्षक और शिक्षार्थी के अधिकार और कर्तव्य की आचारसंहिता का भी समावेश होता है। इतना ही नहीं बल्कि इसमें शिक्षा पर पड़नेवाले सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक प्रभावों का भी अध्ययन किया जाता है और दार्शनिक तथा शिक्षाशास्त्री उन प्रभावों को अपनी मान्यताओं के अनुसार दिशा प्रदान करने की विधियों पर भी विचार करते हैं।४१
यद्यपि कछ विचारकों ने प्रत्येक दार्शनिक विचारधारा, यथा- आदर्शवाद, प्रकृतिवाद, प्रयोजनवाद और यथार्थवाद आदि के प्रत्येक गुण और विचार को शिक्षा में तलाश करने या फिर आरोपित करने का प्रयत्न किया है। जब शिक्षा किन्हीं बिन्दुओं पर किसी विशेष दार्शनिक विचारधारा से समायोजित नहीं हो पायी तो उसमें बहुत से ऐसे तथ्यों की भी परिकल्पना कर ली गयी जो वास्तविक नहीं थे। इस दृष्टिकोण में शिक्षा-दर्शन को एक समायोजनात्मक दर्शन के रूप में प्रस्तुत किया गया और उसे जबरदस्ती किसी न किसी प्रकार दर्शन की किसी न किसी विचारधारा से उसका अंग-प्रत्यंग
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