Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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१८ : जेन पुराणकोश
अनन्तसेना- भरत चक्रवर्ती की रानी । पुरूरवा भील का जीव मरीचि इसी रानी का पुत्र था । मपु० ६२.८५-८९
अनन्तात्मा - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.१०७
अनन्तौजा - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.२०५ अनरण्य - विनीता (अयोध्या) नगरी का राजा, रघु का पुत्र । लोगों की निवासभूमि बनाकर देश को अरण्य रहित करने के कारण यह इस नाम से विख्यात हुआ। इसकी महादेवी पृथ्वीमती (अपरनाम
थी । उससे अनन्तरथ और दशरथ नाम के इसके दो पुत्र हुए थे । माहिष्मती का राजा सहस्ररश्मि इसका मित्र था । पप् ० २२. १६०१६३, २८, १५८ यह और इसका मित्र वचनबद्ध थे कि जो पहले दीक्षित हो वह दूसरे को अवश्य सूचित करे । प्रतिज्ञानुसार सहस्ररश्मि से उसके दीक्षित होने की सूचना पाते ही इसने अपने एक मास के पुत्र दशरथ को राज्य सौंप दिया और बड़े पुत्र अनन्तरथ सहित दीक्षित होकर इसने मोक्ष पद प्राप्त किया । पपु० १०.१६९ १७६, २२.१६६-१६८
अनर्थदण्डव्रतजनदण्डवत गुणवत के तीन भेदों में तीसरा मंद-बिना किसी प्रयोजन के होने वाले विविध पापारम्भों का त्याग। इसके पाँच भेद हैंपापोपदेश अवध्यान प्रमादाचरित हिसादान और अशुभभूति (दुःश्रुति) • ५८.१४६, पापू० १४.१९८, बी० १८.४९ अनल -- (१) अग्नि । यह स्वयं में पवित्र एवं देवरूप नहीं किन्तु अर्हन्त पूजा के संबंध से पवित्र तथा निर्वाण क्षेत्र के समान पूज्य है । मपु० ४०.८८, ८९
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(२) सिन्धु तट का एक देश लवणांकुश ने यहाँ के नृप पर विजय प्राप्त की थी। पपु० १०१.७७-७८
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अनलप्रभ – सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१९८ अनश्वर - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१०१ अनलस्तम्भिनी- अग्नि के प्रभाव को रोकनेवाली एक विद्या । दशग्रीव
(रावण) ने इसे प्राप्त किया था। पपु० ७.३२८-३३२ अनवद्यमति - सर्व उपघाओं से शुद्ध, मन्त्रियों के लक्षणों से सहित एक मंत्री इसने सुलोचना के कारण जयकुमार और अकीति के बोच उत्पन्न कलह के विनाशनार्थ विविध रूपों से अर्ककीर्ति को समझाया था । मपु० ४४.२२ - ५४, पापु० ३.७१-७९ दे० उपधा अनवेक्ष्यमलोत्सर्ग - प्रोषधोपवास व्रत के पाँच अतिचारों में प्रथम अतीचार - अनदेखी भूमि पर मलोत्सर्ग करना । हपु० ५८.१८१ अनवेक्ष्य संस्तरसंक्रम—- प्रोषधोपवास व्रत का दूसरा अतिचार - अनदेखी
भूमि पर बिस्तर आदि बिछाना । हपु ० ५८.१८१ अनवेक्ष्यावान --- प्रौषधोपवास व्रत का एक अतिचार - बिना देखे पदार्थ का
ग्रहण करना या रखना । हपु० ५८.१८१
अनश्वर-- भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का नाम । मपु० २४.४४ अनशन - प्रथम बाह्य तप । मपु० १८.६७-६८, संयम के पालन, ध्यान, की सिद्धि, रागनिवारण और कर्मविनाशन के लिए आहार का त्याग
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अनन्तसेना - अनावृष्टि
करना । मपु० ६.१४२, हपु० ६४.२१, वोवच० ६.३२-४१ दे०
तप
अन्तकृत् — सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१६८ अन्धकान्तक— सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.७३ अनाकाङ्क्षा - साम्परायिक आस्रव की कारणभूत पच्चीस क्रियाओं में बीसवीं क्रिया । इस क्रिया से अज्ञान अथवा आलस्यवश शास्त्रोक्त रीति से विधियों के करने में अनादर होता है । हपु० ५८.७८ दे० साम्परायिक आव अनाकार - दर्शनोपयोग । यह अनाकार होता है । मपु० २४.१०१-१०२ अनादर - ( १ ) प्रोषधोपवास व्रत का एक अतिचार व्रत के प्रति आदर नहीं रखना यह इसका अतिचार है । हपु० ५८. १८१
(२) जम्बूवृक्ष पर बने भवनों का निवासी एक देव । आदर नाम का देव भी इसी के साथ रहता है । हपु० ५.१८१
(३) सामायिक व्रत का अतिचार । सामायिक के प्रति आदर उत्साह न होने से सामायिक नहीं होता । हपु० ५८.१८०
अनादृष्ट — धृतराष्ट्र और उसकी रानी गान्धारी के सौ पुत्रों में चौरासीवां पुत्र । पापु० ८.९९२ - २०५ दे० धृतराष्ट्र
अनादि - भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.३४ अनादिनिधन - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.
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अनाभोग - साम्परायिक आस्रव की कारणभूत पच्चीस क्रियाओं में पन्द्रहवीं क्रिया । बिना शोधी भूमि पर शरीरादि का रखना अनाभोग है । हपु० ५८.७३ ३० साम्परायिक आस्रव
अनामय - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.११४,
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अनायतन - निष्यादर्शन, मिष्याज्ञान, मिष्याचारित्र और इन तीनों के धारक मिथ्यादृष्टि, मिथ्याज्ञानी और मिथ्याचारिवी बीच० ६.७५ अनावृत — जम्बूद्वीप का रक्षक एक यक्ष इमने जम्ब स्वामी की कथा सुनकर आनन्द नामक नाटक किया था । पूर्वभव में यह जम्बूस्वामी के वंश में हुए एक धर्मप्रिय सेठ और उसकी पत्नी गुणदेवी का द दास नाम का पुत्र था, मपु० ७६.१२१-१२७, हपु० ५.६३७ जम्बूवृक्ष पर निर्मित भवन का वासी यह देव किल्विषक जाति के सैकड़ों देवों से आवृत रहता है। इसने दशानन आदि तीनों भाइयों की विद्यासिद्धि में विभिन्न रूपों से उपद्रव किये थे तथा विद्या की सिद्धि होने पर उनको अर्चा भी की थी । पपु० ३.४८, ७.२३७-३१२, ३३६ अनावृष्टि - वसुदेव तथा मदनवेगा का पुत्र, दृढमुष्टि का अनुज और हिममुष्टि का अग्रज । यह शस्त्र और शास्त्रार्थ में निपुण, दया से पराङ्मुख, महाशक्तिमान और महारथी था । ह्पु० ४८.६१, ५०.७९-८० कृष्ण और जरासन्ध युद्ध में कृष्ण ने इसे सेनापति बनाया था । जरासन्ध के वीर हिरण्याभ ने इसे सात सौ नब्बे बाणों द्वारा सत्ताईस बार युद्ध में आबद्ध किया था । बदला लेने में कुशल इसने उसे एक हज़ार बाणों द्वारा सौ बार नीचे गिराया था । अन्त में इसने हिरण्याभ को तलवार के घातक प्रहार से मार डाला था । कृष्ण द्वारा राजा
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