Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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अनन्तवीर्य-अनन्तसेन
जैन पुराणकोश : १७
३६७-३६९, ३९९ यह आठवें पूर्वभव में पूर्व विदेह क्षेत्र में वत्सकावती देश के राजा प्रीतिवर्धन का पुरोहित था। सातवें पूर्वभव में उत्तरकुरु भोगभूमि में आर्य हुआ। छठे पूर्वभव में रुषित विमान में प्रभंजन देव हुआ। पाँचवें पूर्वभव में धनदत्त और धनदत्ता का पुत्र धनमित्र सेठ हुआ। मपु० ८.२११-२१४, २१८ चतुर्थ पूर्वभव में यह अघौवेयक के सबसे नीचे के विमान में अहमिन्द्र हुआ। मपु० ९.९२-९३ तीसरे पूर्वभव में पुण्डरीकिणी नगरी के राजा वज्रसेन का महापीठ नामक राजपुत्र हुआ । मपु० ११.८-१३ इस भव के पूर्व यह सवार्थसिद्धि में अहमिन्द्र था। मपु० ९.१६०-१६१ युगपत् सर्वभवों
के लिए द्रष्टव्य है । मपु० ४७.३६७-३६९ अनन्तवीर्य-(१) भविष्यत्कालीन चौबीसवें तीर्थकर । मपु० ७६.४८१, हपु० ६०.५६२
(२) तीर्थकर ऋषभनाथ का पुत्र, भरतेश का ओजस्वी और चरम शरीरी अनुज । मपु० १६.३-४ भरत की अधीनता स्वीकार करने के लिए कहे जाने पर इसने अधीनता स्वीकार न करके ऋषभदेव के समोप दीक्षा ग्रहण कर लो थी तथा मोक्ष प्राप्त किया था । मपु० २४.१८१ आठवें पूर्वभव में यह हस्तिनापुर नगर में सागरदत्त वैश्य के उग्रसेन नामक पुत्र, सातवें पूर्वभव में व्याघ्र, मपु० ८.२२२-२२३, २२६, छठे पूर्वभव में उत्तर कुरुक्षेत्र में आर्य, पांचवें पूर्वभव में ऐशान स्वर्ग में चित्रांगद देव, मपु० ९.९०, १८७-१८९, चौथे पूर्वभव में राजा विभीषण और उनकी रानी प्रियदत्ता के वरदत्त नामक पुत्र, तीसरे पूर्वभव में अच्युत स्वर्ग में देव, मपु० १०.१४९, १७२, दूसरे पूर्वभव में विजय नामक राजपुत्र और पहले पूर्वभव में स्वर्ग में अहमिन्द्र हुआ था। मपु० ११.१०, १६०, इसका अपरनाम महासेन था। मपु० ४७.३७०-३७१
(३) वत्सकावती देश की प्रभाकरी नगरी के राजा स्तिमितसागर तथा उसकी रानी अनुमति का पुत्र । पूर्वभव में यह स्वस्तिक विमान में मणिचूल नाम का देव था। राज्य पाकर नृत्य देखने में लीन होने से यह नारद की विनय करना भूल गया था जिसके फलस्वरूप नारद ने दमितारि को इससे युद्ध करने भेजा था। दमितारि के आने का समाचार पाकर यह नर्तकी के वेष में दमितारि के निकट गया था और उसकी पुत्री कनकधी का हरण कर इसने दमितारि को उसके ही चक्र से मारा था । अर्धचक्री होकर यह मरा और रत्नप्रभा नरक में पैदा हुआ । वहाँ से निकलकर यह मेघवल्लभ नगर में मेघनाद नाम का राजपुत्र हुआ। मपु० ६२.४१२-४१४, ४३०, ३१.४४३, ४६१-४७३, ४८३-४८४, ५१२, ६३.२५, पापु० ४.२४८, ५.२-६
(४) जयकुमार तथा उसकी महादेवी शिवंकरा का पुत्र । मपु० ४७.२७६-२७८, हपु० १२.४८, पापु० ३.२७४-२७५
(५) विनीता नगरी का राजा । यह सूर्यवंशशिखामणि, चक्रवर्ती सनत्कुमार का पिता था । मपु० ६१.१०४-१०५, ७०.१४७
(६) एक महामुनि । तीसरे पूर्वभव में तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ के जीव चम्पापुर के राजा हरिवर्मा को इन्होंने तत्त्वोपदेश दिया था।
इसी प्रकार चक्रवर्ती हरिषेण ने भी इनसे मोक्ष का स्वरूप सुनकर संयम धारण किया था। मपु० ६७.३-११, ६६-६८ विजया, पर्वत की अलकापुरी मगरी के राजा पुरबल और उसकी रानी ज्योतिर्माला का पुत्र हरिबल इनसे द्रव्य-संयम धारण करके सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ था। मपु० ७१.३११-३१२ श्रीधर्म इनके सहगामी चारण ऋद्धिधारी मुनि थे। शतबली अपने भाई हरिवाहन द्वारा निर्वासित किये जाने पर इनसे ही दीक्षित हुआ तथा मरकर ऐशान स्वर्ग में देव हुआ था । हपु०६०.१८-२१, दशानन ने भी इन्हीं से बलपूर्वक किसी भी स्त्री को ग्रहण न करने का नियम लिया था। पपु० ३९. २१७-२१८ जब ये छप्पन हजार आकाशगामी मुनियों के साथ लंका के कुसुमायुध नाम के उद्यान में आये तब इनको केवलज्ञान इसी उद्यान में हुआ था। पपु० ७८.५८-६१ इनका दूसरा नाम अनन्तबल था । पप० १४.३७०-३७१
(७) इस नाम का एक विद्वान् । यह जिनेन्द्र के अभिषेक से स्वर्ग में सम्मानित हुआ था । पपु० ३२.१६९
(८) मथुरा नगरी का राजा। इसकी रानी मेरुमालिनी से मेरु नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ था। मपु० ५९. ३०२
(९) सिद्ध (परमेष्ठी)के आठ गुणों में एक गुण-वीर्यान्तराय कर्म के क्षय से उत्पन्न अप्रतिहत सामर्थ्य । इस गुण की प्राप्ति के लिए 'अनन्तवीर्याय नमः' इस पीठिका-मंत्र का जप किया जाता है। पु०
२०.२२२-२२३, ४०.१४, ४२.४४, ९९ दे० सिद्ध अनन्तशक्ति-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम | मपु०
२५.२१५ अनन्तश्री-पुष्कर द्वीप में भरतक्षेत्र के नन्दनपुर नगर के राजा अमित
विक्रम और उसकी रानी आनन्दमती की पुत्री, धनश्री की बहिन । त्रिपुर नगर के स्वामी वज्रांगद ने इन दोनों बहिनों का अपहरण किया था किन्तु अपनी पत्नी वज्रमालिनी से भयभीत होकर उसने इन्हें वंश वन में छोड़ दिया था । वन में दोनों बहिनों ने संन्यासमरण किया और सौधर्म स्वर्ग में नवमिका जौर रति नाम की देवियाँ हुईं।
मपु० ६३.१२-१९ अनन्त सम्यक्त्व-सिद्ध के आठ गुणों में प्रथम गुण । मपु० २०.२२२
२२३ दे० सिद्ध अनन्तसुख-सिद्ध के आठ गुणों में एक गुण-मोहनीय कर्म के क्षय से
भोग करने योग्य पदार्थों में उत्कण्ठा का अभाव । मपु० २०.२२२
२२३, ४२.४४, १०० अनन्तसेन-(१) बलभद्र अपराजित का पुत्र । अपराजित इसे ही राज्य देकर संयमी हुआ था । मप ६३.२६, पापु० ५.३
(२) दमितारि की पुत्री कनकधी के भाई सुघोष और विद्युदंष्ट्र के साथ युद्ध में तत्पर अपराजित और अनन्तवीर्य द्वारा भेजा हुआ एक योद्धा । मपु० ६२.५०३
(३) एक नुप। इसने अपने भाइयों सहित मेघस्वर (जयकुमार) के छोटे भाइयों पर आक्रमण किया था। जयकुमार से यह पराजित हुआ था । पापु० ३.११५
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