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प्रस्तावना
११
का अनुसरण करते हुए कहीं मंत्री आदि भावनाओं स्वरूप, कहीं अभ्युदय व निश्रेयस का साधक, कहीं उत्तमक्षमादिरूप, कहीं श्रुत चारित्रस्वरूप, कहीं दयाप्रधान और कहीं वस्तुस्वभावरूप कहा है ।
नय - यह जैनागम का एक दृढ़तम आधार रहा है । विविध ग्रन्थों में इसके स्वरूप का विचार अनेक प्रकार से किया गया है व उपयोगिता भी उसकी अत्यधिक प्रगट की गई है । यथा - स्वयम्भू स्तोत्र (५२) में श्रेयान् जिनकी स्तुति करते हुए प्रा. समन्तभद्र ने कहा है- प्रतिषेघसापेक्ष विधि प्रमाण है । उक्त विधि व प्रतिषेध में एक प्रधान व दूसरा गौण हुआ करता है । उनमें को मुख्य का नियमन करता है उसे न कहा जाता है । इसी स्तुति में श्रागे (६५) यह भी कहा गया है कि 'स्यात्' पद से चिह्नित 'वे नय यथार्थ होते हुए इस प्रकार प्रभीष्ट गुणवाले हैं जिस प्रकार कि रसायन से अनुविद्ध लोह धातु प्रयोक्ता को अभीष्ट गुणवाली हुआ करती है। इसके पूर्व प्रकृत स्तुति में ही (६१) उसकी उपयोगिता और अनुपयोगिता को प्रगट करते हुए यह भी सूचित कर दिया गया है कि ये द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नय तभी स्व-पर के लिए उपकारक होते हैं जब वे परस्पर सापेक्ष हुआ करते हैं । इसके विपरीत - परस्पर की अपेक्षा के विना वे यथार्थता से दूर रहते हुए स्व पर के घातक ही हुआ करते हैं । उक्त समन्त भद्राचार्य ने अपनी प्राप्तमीमांसा ( १०६) में हेतुपरक नय के स्वरूप को दिखलाते हुए कहा है कि साध्य का होने से जो विना किसी प्रकार के विरोध के स्याद्वादस्वरूप नीति से विभक्त अर्थविशेष ( साध्य ) का व्यंजक होता है वह नय कहलाता है। लगभग इसी अभिप्राय को प्रगट करते हुए सर्वार्थसिद्धि (१-३३) में कहा गया है कि वस्तु अनेकान्तात्मक -- नित्यत्व-अनित्यत्व, एकत्व अनेकत्व, भावरूप- अभावरूप और भिन्नत्व प्रभिन्नत्वप्रादि परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले अनेक धर्मोस्वरूप है । उनमें जो प्रयोग विना किसी प्रकार के विरोध के हेतु की मुख्यता से साध्यविशेष की यथार्थता की प्राप्ति में कुशल होता है उसे नय कहा जाता है ।
वार्थाधिगम भाष्य (१-३५) में नय के प्रापक, कारक, साधक, निर्वर्तक, उपलम्भक और व्यंजक इन समानार्थक नामों का निर्देश करते हुए कहा गया है कि जो जीवादि पदार्थों को ले जाते हैं, प्राप्त कराते हैं, कारक हैं, सिद्ध कराते हैं, निर्वर्तित करते हैं, उपलब्ध कराते हैं और व्यक्त कराते हैं। उनका नाम नय है । लगभग इसी अभिप्राय को उत्तराध्ययन चूर्णि (पृ. ४७ ) में भी प्रगट किया गया है । प्रावश्यक नि. (१०६६) और दशवैकालिक नि. ( १४९) में नय के स्वरूप को प्रगट करते हुए कहा गया है कि ग्रहण करने योग्य अथवा नहीं ग्रहण करने योग्य ज्ञात पदार्थ के विषय में प्रयत्न करना चाहिए, इस प्रकार का जो उपदेश है उसे नय कहा जाता है । न्यायावतार (२६) के अनुसार जो एक देश विशिष्ट पदार्थ को विषय करता है उसे नय माना गया है ।
भट्टा कलंकदेव ने सिद्धिविनिश्चय ( १०, १-२ ), लघीयस्त्रय ( ५२ ) और प्रमाणसंग्रह (53) ज्ञाता के अभिप्रायको नय कहा है । इसके पूर्व लघीयस्त्रय (३०) में वे प्रकारान्तर से यह भी कहते हैं कि प्रमाण के विषयभूत (ज्ञेय) वस्तु भेदाभेदात्मक - सामान्य विशेषस्वरूप है उसके विषय में पुरुषों के जो अपेक्षा और उसके विना सामान्य व विशेष विषयक अभिप्राय हुआ करते हैं उन्हें यथाक्रम से नय भौर दुर्नय कहा जाता है। इस कारिका की स्वो वृत्ति में भी उन्होंने ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहा है । इसी अभिप्राय को उन्होंने आगे भी इस लवीयस्त्रय की स्वो वृत्ति (७१) में पुन: प्रगट किया है । उक्त लद्यीयस्त्रय की ६२वीं कारिका में उन्होंने श्रुत के दो उपयोग ( व्यापार ) बतलाये हैं— एक स्याद्वाद और दूसरा नय । इनमें स्याद्वाद को — श्रनेकान्तात्मक पदार्थ के कथन को - सकलादेश – सम्पूर्ण पदार्थ का कथन करने वाला - श्रौर नय को विकल संकथा - वस्तु के एक देश का कथन करने वाला — कहा है । प्रकृत लघीयस्त्रय में आगे (६६) उन्होंने कहा है कि श्रुत के भेदभूत जो नय हैं वे नैगम-संग्रहादि के भेद से सात हैं । उनका मूल आधार द्रव्य व पर्याय है । इसका अभिप्राय यह है कि मूल में नय के दो भेद हैं- एक द्रव्यार्थिक नय और दूसरा पर्यायार्थिक नय । पूर्वनिर्दिष्ट नगमादि सात में पूर्व के तीन द्रव्यार्थिक और अन्तिम चार पर्यायार्थिक नय के अन्तर्गत हैं । यह पूर्वोक्त
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