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प्रस्तावना
इसके अतिरिक्त संशय, विपर्यय व अनध्यवसाय को प्राप्त गणधर को लक्ष्य कर अन्य समय में भी प्रवृत्त होती है। विशद स्वरूप वाली वह दिव्य वाणी शंकर-व्यतिकर दोष से रहित उन्नीस धर्मकथानों का निरूपण करती है।
भक्तामर स्तोत्र (३५) में उक्त दिव्यध्वनि की विशेषता को प्रगट करते हुए कहा गया है कि वह जिनेन्द्र की अनुपम वाणी स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त कराने वाले मार्ग के खोजने में कुशल होकर तीनों लोकों के प्राणियों को समीचीन धर्म का निरूपण करती है। विशद अर्थ की प्ररूपक उस वाणी का गुण समस्त भाषानों में परिणत होने का है। भक्तामर का यह कथन पूर्वोक्त स्वयंभूस्तोत्र से प्रभावित रहा प्रतीत होता है।
हरिवंशपुराण (५८-६) में इस अनुपम जिनवाणी को मधुर, स्निग्ध, गम्भीर, दिव्य, उदात्त एवं स्पष्ट अक्षरस्वरूप निर्दिष्ट किया गया है। जीवन्धरचम्पू (६-१६) में इस दिव्य भाषा को समस्त वचनभेदों की अकारक कहा गया है।
जिनेन्द्र का उपदेश अर्धमागधी भाषा में होता है। निशीथचूणि के अनुसार प्राधे मगध देश से सम्बद्ध भाषा को अर्धमागधी कहा जाता है, अथवा अठारह देशी भाषाओं में नियत भाषा अर्धमागधी कहलाती है। समवायांग की अभयदेव विरचित वृत्ति (३४, पृ. ५६) के अनुसार प्राकृत आदि छह भाषाभेदों में मागधी नाम की भाषा है। (यह सम्भवतः समस्त मगध देश की भाषा रही होगी)। र के स्थान में ल और श, ष एवं स इन तीनों के स्थान में एक मात्र स; इत्यादि व्याकरण नियमों से युक्त वह मागधी भाषा अपने समस्त नियमों का आश्रय न लेने से अर्धमागधी कही जाती है।
धर्म-प्रा. कन्दकन्द ने प्रवचनसार (१, ७-८) में चारित्र को धर्म कहा है जो समस्वरूप है। इस सम को उन्होंने मोह (दर्शनमोह) और क्षोभ (चारित्रमोह) से रहित प्रात्मपरिणति बतलाया है। आगे उन्होंने 'जो द्रव्य जिस रूप से परिणत होता है वह उस काल में तन्मय कहा जाता है' इस नियम के अनुसार धर्मस्वरूप से परिणत प्रात्मा को धर्म कहा है । यहीं पर आगे (१-११) उन्होंने यह भी कहा है कि इस प्रकार के धर्म से परिणत पात्मा यदि शुद्धोपयोग से सहित होता है तो वह निर्वाणसुख को प्राप्त करता है और यदि शुभोपयोग से संयुक्त होता है तो फिर स्वर्गसुख को प्राप्त करता है। उक्त कुन्दकुन्दाचार्य ने सागार और निरागार के भेद से संयमचरण को दो प्रकार का बतलाकर (चा. प्रा. २१) उनमें सागार संयमचरण को श्रावकधर्म और शुद्ध (निरागार) संयमचरण को यतिधर्म कहा है (चा. प्रा. २७) । उक्त प्रा. कुन्दकुन्द ने भावप्राभूत (८३-८५) में भी प्रवचनसार के समान पुन: मोह और क्षोभ से रहित प्रात्मा के परिणाम को धर्म कहा है। यहां इतना विशेष कहा गया है कि व्रत सहित पूजा मादि में जो प्रवृत्ति होती है उससे उपाजित पुण्य भोग का कारण होता है, कर्मक्षय का कारण वह नहीं होता। मोक्ष का कारण तो वह प्रात्मा है जो समस्त दोषों से रहित होता हुआ रागादि में निरत न होकर आत्मा में ही रत होता है। ऐसे प्रात्मा को ही यहां धर्म कहा गया है। इन्हीं प्रा. कुन्दकुन्द ने बोधप्राभृत (२४) में दया से विशुद्ध आचरण को भी धर्म कहा है। पूर्वोक्त प्रवचनसार (३, ४५-५४) में मा. कुन्दकुन्द ने श्रमणों को शुद्धोपयोग और शुभोपयोग इन दोनों से युक्त बतलाते हुए अरहन्तादि में जो भक्ति और प्रवचनाभियुक्तों में जो वात्सल्यभाव होता है उसे शुभोपयोगयुक्त चर्या बतलाया है। प्राचार्य आदि को पाते देखकर वन्दना व नमस्कार के साथ उठकर खड़े हो जाना, पीछे-पीछे चलना और श्रमणों के श्रम को पादमर्दनादि के द्वारा दूर करना; इस सबको यहां सराग चारित्र में निन्द्य नहीं कहा गया, अत: उसे उपादेय ही समझना चाहिए। इतना यहां विशेष कहा गया है कि वैयावृत्त्य में उद्यत होकर श्रमण यदि प्राणियों को पीड़ा पहुंचाता है तो वह श्रमण नहीं रहता, किन्तु गृहस्थ हो जाता है; क्योंकि वह श्रावकों का धर्म है । श्रमणों की अथवा गृहस्थों की इस प्रशस्तभूत चर्या को यहां पर (उत्कृष्ट)' कहा गया है, कारण यह कि उससे साक्षात् अथवा परम्परा से मोक्षसुख प्राप्त होता है । आगे उन्होंने यहां (३-६.) यह भी स्पष्ट कह दिया है कि अशुभोपयोग से रहित होकर जो शुद्धोपयोग अथवा शुभोपयोग से युक्त होते
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