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प्रस्तावना
चन्द्र विरचित वृत्ति (४१), श्रमितगति विरचित पंचसंग्रह (१-२४९), स्थानांग की अभयदेव विरचित वृत्ति (२- १०५ ) श्रपपातिक की अभयदेव विरचित वृत्ति (१०, पृ. १५), आवश्यक निर्युक्ति की मलयगिरि विरचित वृत्ति (पृ. २७७ व पृ. ५६८ निर्युक्ति १०५१ की वृत्ति), प्रवचनसारोद्धार की वृत्ति (१२४६) श्रीर जीवाभिगम की मलय. वृत्ति (१-१३, पृ. १८) आदि ग्रन्थों में प्रकृत दर्शन का लक्षण सामान्यग्रहण निर्दिष्ट दिया गया है ।
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तत्त्वार्था (२, ६, १ ), महापुराण ( २४, २०१-२ ), प्रष्टसहस्री (१५, पृ. १३२), त भा. की सिद्धसेन रचित वृत्ति (२-६), तत्त्वार्थसार (२-१२), सन्मतिसूत्र वृत्ति (२-१, पृ. ४५८ ), स्याद्वाद रत्ना (२-१०), मोक्षपंचाशिका ( ३ ) और प्रतिष्ठासार (२-६० ) में उक्त दर्शन का लक्षण अनाकार निराकार कहा गया है ।
उक्त तत्त्वार्थवार्तिक में आगे ( ६, ७, ११) तथा पूर्वनिर्दिष्ट तत्त्वार्थसार में भी आगे (२-८६ ) दर्शनावरण के क्षयोपशम से प्रादुर्भूत प्रालोचन को दर्शन कहा गया है ।
ललितविस्तरा में (पृ. ६३ ) इस दर्शन के स्वरूप का निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि सामान्य को प्रधान और विशेष को गौण करके जो पदार्थ का ग्रहण होता है उसे दर्शन कहा जाता है ।
प्रकृत दर्शन का विचार प्रा. वीरसेन के द्वारा घवला टीका में यथाप्रसंग अनेक स्थलों में शंकासमाधानपूर्वक विस्तार से किया गया है । यथा- पु. १, पृ १४५ पर 'दृश्यते श्रनेनेति दर्शनम्' इस निरुक्ति के साथ जिसके द्वारा देखा जाता है उसे दर्शन कहा गया है । इस सामान्य लक्षण के निर्देश से नेत्र व प्रकाश में जो प्रतिव्याप्ति का प्रसंग प्राप्त था उसका निराकरण करते हुए वहीं पर आगे अन्तर्मुख चित्प्रकाश को दर्शन कहा गया है। इसी पुस्तक में आगे (पृ. १४७ ) अनेक शंका समाधानपूर्वक सामान्यविशेषात्मक आत्मा के स्वरूप के ग्रहण को दर्शन सिद्ध किया गया है । ऐसी स्थिति में "जं सामण्णं गहणं तं दंसणं” इस श्रागमवचन के साथ जो विरोध की सम्भावना थी उसका निराकरण करते हुए उसक समन्वय किया गया गया है । वह सम्पूर्ण भागमवचन इस प्रकार है-
जं सामण्णं गहणं भावाणं णेव कट्टुमायारं ।
अविसेसिण प्रत्थे दंसणमिति भण्णदे समए । '
इसके साथ समन्वय करते हुए वहां यह कहा गया है कि 'सामान्य' शब्द से यहां समस्त बाह्य पदार्थो में साधारण होने से श्रात्मा को ग्रहण किया गया है। उक्त गाथा की व्याख्या करते हुए वहाँ यह सूचित किया गया है कि गाथागत 'भाव' शब्द से बाह्य श्रर्थ विवक्षित हैं । उन बाह्य अर्थों के प्रतिकर्मव्यव स्थारूप आकार को ग्रहण न करके तथा 'यह अमुक पदार्थ है' इस प्रकार से पदार्थों की विशेषता को न करके जो सामान्य का सामान्य विशेषात्मक श्रात्मस्वरूप का — ग्रहण होता है उसे आगम में दर्शन कहा गया है । यहीं पर (पृ. १४८) विकल्प रूप में श्रालोकनवृत्ति को दर्शन कहते हुए उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया गया है - 'प्रालोकते इति श्रालोकनम्' इस निरुक्ति के अनुसार प्रालोकन का श्रर्थ श्रात्मा और वृत्ति का अर्थ वर्तन है । तदनुसार प्रालोकन की वृत्ति को - स्वात्मसंवेदन को - दर्शन समझना चाहिए ।
आगे यहां (पृ. १४६) प्रकारान्तर से प्रकाशवृत्ति को दर्शन कहते हुए प्रकाश का अर्थ ज्ञान किया गया है । तदनुसार उस प्रकाश के निमित्त आत्मा की जो प्रवृत्ति होती है उसे दर्शन कहा गया है जो विषय और विषय के सम्पात से पूर्व की अवस्थारूप है । इसी पुस्तक में प्रांगे (पृ. ३८४-८५ ) पुनः स्वरूपसंवेदन को दर्शन स्वीकार करने की प्रेरणा करते हुए अपने से भिन्न वस्तु के परिच्छेद को ज्ञान और अपने से अभिन्न वस्तु के परिच्छेद को दर्शन कहा गया है। इस प्रकार से ज्ञान और दर्शन में भेद भी प्रगट कर दिया गया है ।
१. यह गाथा श्रनुयोगद्वार की हरिभद्र विरचित वृत्ति (पृ. १०३ ) में उद्धृत है ।
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