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प्रस्तावना
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होने से दुख के साथ उसका परिपालन करते हैं । इन उभय तीर्थंकरों के तीर्थवर्ती शिष्य कल्प्या कल्प्य - योग्य-अयोग्य श्राचरण - को नहीं जानते हैं ।
लगभग यही अभिप्राय उत्तराध्ययन ( २३, २६-२७) में भी व्यक्त किया गया है। वहां केशिगौतम संवाद के प्रसंग में केशी के द्वारा पूछे गये चातुर्याम व पंचयाम विषयक प्रश्न के समाधान में गौतम के द्वारा कहा गया है कि प्रथम तीर्थंकर के शिष्य ऋजु जड़ होने से दुर्विशोध्य और प्रतिम तीर्थंकर के शिष्य वक्रजड़ होने से दुरनुपालय - कष्ट के साथ व्रत का पालन करने वाले थे । मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के शिष्य ऋजुप्रज्ञ - स्वभाव से सरल और बुद्धिमान् थे । इसीलिए मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के द्वारा चातुर्याम का तथा प्रादि व अन्त के तीर्थंकरों के द्वारा पंचयाम का उपदेश किया गया है ।
'छेदोपस्थापना' के अन्तर्गत सर्वार्थसिद्धि ( ६-१८ ) में भी यही कहा गया है कि प्रमाद के वशीभूत होकर जो अनर्थ - विरुद्ध प्राचरण - किया गया है उससे सदाचरण का लोप होने पर जो सम्यक् प्रतीकार किया जाता है उसे छेदोपस्थापना कहते हैं । तस्वार्थवार्तिक (६,१८, ६-७ ) में इसको कुछ विशेष स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि प्रमाद से किये गये अनर्थ से निरवद्य क्रिया (सदाचरण ) का विलोप होने पर उसके द्वारा उपार्जित कर्म का जो सम्यक् प्रतीकार किया जाता है उसे छेदोपस्थापना जानना चाहिए । अथवा सावद्यकर्मस्वरूप हिंसादि के विकल्पपूर्वक जो संयम ग्रहण किया जाता है उसे छेदोपस्थापना समझना चाहिए । इसमें पूर्वोक्त मूलाचार (७, ३६-३५ ) का ही अनुसरण किया गया प्रतीत होता है ।
तद्भवमरण - उत्तरा चूर्णि (५, पृ. १२७ ) के अनुसार जीव जिस भवग्रहण में मरता है - जैसे नारकभवग्रह्णादि उसे तद्भवमरण कहा जाता है । त. वार्तिक (७, २२, २) में सल्लेखना के प्रसंग में कहा गया है कि भवान्तर की प्राप्ति के अनन्तर उपश्लिष्ट पूर्व भव के विनाश का नाम तद्भवमरण है । यही अभिप्राय प्रायः शब्दशः भ. प्रा. की विजयोदया टीका (२५) और चारित्रसार (पृ. २३) में भी प्रगट किया गया है । भ. प्रा. की टीका में 'उपश्लिष्ट' के स्थान में 'उपसृष्ट' तथा इन दोनों में ही 'प्राप्त्यनन्तरों' के स्थान में 'प्राप्तिरनन्तरो - पाठ उपलब्ध है । प्रवचनसारोद्वार (१०१२ ) और स्थानांग की अभयदेव विरचित वृत्ति (१०२) में इसे कुछ और विकसित करते हुए कहा गया है कि अकर्मभूमि मनुष्य व तिर्यंच, देवगण और नारकी इनको छोड़कर शेष जीवों में किन्हीं का तद्भवमरण होता है । उक्त स्थानांग की वृत्ति में आगे (१०२, पृ. ८) में यह भी स्पष्ट किया गया है कि जीव जिस भव में हैं उस भव के योग्य आयु को बांधकर जब मरण को प्राप्त होता है तब उसके मरण को तद्भवमरण कहा जाता है । यह तद्भवमरण संख्यातवर्षायुष्क मनुष्य और तिर्यंचों का ही होता है, क्योंकि उन्हीं के उस भव की आयु का बन्ध होता है । भ. श्री. की मूलाराधनादर्पण टीका (२) के अनुसार भुज्यमान आयु के अन्तिम समय में होने वाले मरण को तद्भवमरण कहा जाता है । इस प्रकार स्थानांग के टीकाकार अभयदेव सूरि को जहां तद्भवमरण कर्मभूमिज मनुष्य तिर्यंचों के ही प्रभीष्ट है वहां अन्यों को जीव जिस किसी भी भव में मरण को प्राप्त होता है वही तद्भवमरण के रूप में अभीष्ट रहा है, ऐसा प्रतीत होता है ।
१३-१४ ) में पृथिवी, अप्,
त्रस कहा गया है । परन्तु पृथिवी, श्रम्बु और वन
त्रस -- सर्वार्थसिद्धिसम्मत सूत्रपाठ के अनुसार तत्त्वार्थ सूत्र (२, तेज, वायु और वनस्पति इनको स्थावर तथा द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय श्रादि जीवों को त. भाष्यसम्मत सूत्रपाठ के अनुसार उक्त तत्त्वार्थ सूत्र ( २, १३-१४ ) में ही स्पति इन जीवों को स्थावर तथा तेज, वायु और द्वीन्द्रिय आदि जीवों को त्रस कहा गया है । उक्त त. सू. की स. सि. (२-१२) त. वा. (२, १२, १) और त. श्लो. वा. (२-१२) आदि व्याख्यानों में तथा धवला (पु. १, पृ. २६५-६६ ) में त्रसनामकर्म के वशीभूत प्राणियों को त्रस कहा गया है । इसी त. सु. की व्याख्यास्वरूप त. भा. में स जीवों के स्वरूप का कहीं ( २, १२-१४) कोई निर्देश नहीं किया गया है । आगे वहां सनामकर्म के प्रसंग ( ८- १२ ) में भी केवल त्रसभाव के निव
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