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प्रस्तावना
इस ग्रन्यि का भेदन प्रपूर्वकरण परिणामों के द्वारा होता है। यथाप्रवृत्तकरण जीव के अनादि काल से प्रवृत्त रहता है। जिस प्रकार नदी में पड़े हुए पत्थरों में से कोई घिसते-धिसते स्वयमेव गोल हो जाता है उसी प्रकार अनादि से प्रवृत्त इस करण में घर्षण-घूर्णन के निमित्त से ज्ञानावरणादि कर्मों की स्थिति में केवल एक कोड़ाकोड़ि को छोड़ शेष समस्त कोडाकोड़ियां क्षय को प्राप्त हो जाती हैं। पश्चात् शेष रही उस एक कोड़ाकोडि मात्र स्थिति में भी जब पल्योपम का असंख्यातवां भाग और भी क्षीण हो जाता है तब तक पूर्वोक्त ग्रन्थि अभिन्नपूर्व ही रहती है। उसका भेदन अपूर्वकरण परिणाम के द्वारा होता है। मनन्तर अनिवत्तिकरण के अन्त में जीव को मोक्षपद के कारणभूत उस सम्यक्त्व का लाभ होता है। इस ग्रन्थि का प्रसंग विशेषा. भाष्य (११८८-१२१५) व अन्य भी श्वे. ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। पर वह किसी दि. ग्रन्थ में मुझे दष्टिगोचर नहीं हा।
तत्त्वार्थवात्तिक (६.१, १३) में यथाप्रवृत्त के समानार्थक 'प्रथाप्रवृत्त' का निर्देश करते हुए कहा गया है कि जीव कर्मों को अन्तःकोड़ाकोडि प्रमाण स्थिति से यूक्त करके कालादिलब्धिपूर्वक प्रथाप्रवृत्त करण के प्रथम समय में प्रविष्ट होता है। यह करण चूंकि पूर्व में उस प्रकार से कभी भी प्रवृत्त नहीं हुआ, प्रतः उसकी 'प्रथाप्रवृत्त' यह सार्थक संज्ञा है।
दि. ग्रन्थों में 'षट्खण्डागम' यह एक प्राचीनतम ग्रन्थ है। उसके प्रथम खण्डभूत जीवस्थान की नौ चूलिकांपों में पाठवीं चूलिका के द्वारा सम्यक्त्व की उत्पत्ति की प्ररूपणा की गई है (देखिए पु. ६, पृ. २०३ से २६७) । उसके अनुसार पंचेन्द्रिय, संज्ञो, मिथ्यादृष्टि, पर्याप्तक सर्वविशुद्ध जीव जब कर्मों की शेष स्थिति को क्षीण करके उसे संख्यात हजार सागरोपमों से हीन अन्तःकोड़ाकोडि प्रमाण कर देता है तब वह प्रथम सम्यक्त्व के उत्पादन में समर्थ होता है (सूत्र १, ६-८, ३-५) । सर्वार्थसिद्धि (२-३) और तत्त्वार्थवार्तिक (२, ३, २) में प्राय: उक्त षट्खण्डागम के सूत्रों का शब्दशः अनुसरण किया गया है । जैसा कि पूर्व में निर्देश किया गया है त. वा. (E, १, १३) में सूचित 'कालादिलब्धि' की विशेष प्ररूपणा यहां की जा चुकी है।।
उस समय उसके क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण ये पांच लब्धियां होती हैं। इनमें प्रथम चार लब्धियां तो साधारण हैं-वे भव्य के समान प्रभव्य के भी हो सकती हैं, किन्तु अन्तिम करणलब्धि सम्यक्त्व के उन्मुख हुए भव्य जीव के ही होती है। इस करणलब्धि में क्रम से अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीन करणों को करते हुए जीव के अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समय में प्रथम सम्यक्त्व का लाभ होता है (इन लब्धियों का स्वरूप धवला पू. ६, पृ. २०४-३० देखा जा सकता है)।
छेद-प्राचार्य कुन्दकुन्द ने छेद के अभिप्राय को प्रगट करते हुए प्रवचनसार (३-१६) में कहा है कि शयन, प्रासन, स्थान और गमनादि कार्यों में जो श्रमण की प्रयत्न से रहित चर्या-प्रसावधानतापूर्ण प्रवृत्ति होती है उसका नाम छेद है। यद्यपि मूल गाथा में प्रकृत छेद शब्द का प्रयोग न करके पूवोंक्त प्रवृत्ति को हिंसा कहा गया है, तो भी उसकी व्याख्या करते हुए अमृतचन्द्र सूरि ने यह स्पष्ट कहा है कि अशुद्ध उपयोग का नाम छेद है, और चूंकि अनाचारपूर्ण प्रवृत्तिरूप मुनि का वह अशुद्ध उपयोग श्रमणधर्म का छेदन करता है-उसका विनाशक है, इसलिए उसे छेद कहना युक्तिसंगत है।
त. सूत्र (९-२२) और स. सि. आदि ग्रन्थों के अनुसार छेद यह नौ प्रकार के अथवा मूलाचार (५-१६५) के अनुसार दस प्रकार के प्रायश्चित्त के अन्तर्गत है। स. सि. में उसके लक्षण का निर्देश करते हुए कहा गया है कि अपराध के होने पर साधु की दीक्षा को यथायोग्य एक दिन, पक्ष व मास प्रादि से हीन कर देना, इसका नाम छेद प्रायश्चित्त है। त. वा. और (धवला पु. १३, पृ. ६१) आदि में प्रायः इसी का अनुसरण किया गया है। विशेषरूप से घवला में यह कहा गया है कि दिवस, पक्ष, मास, ऋतु, प्रयन और संवत्सर प्रादि प्रमाण दीक्षापर्याय को छेदकर अभीष्ट पर्याय से नीचे की भूमि में स्थापित करना, यह छेद नाम का प्रायश्चित्त है। यह प्रायश्चित्त अपराध करने वाले उस अभिमानी साधु के
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