Book Title: Jain Lakshanavali Part 3
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 15
________________ जैन लक्षणावलो रत्नकरण्डक (१२) में प्रकृत कांक्षा के विपरीत श्रनाकांक्षा या निःकांक्षित अंग के लक्षण में कहा गया है कि जो सांसारिक सुख कर्म के अधीन, विनश्वर एवं दुख का कारण है उस पाप के बीजभूत सुख में श्रास्था न रखना- उसकी स्थिरता पर विश्वास न करते हुए अभिलाषा न करना- इसका नाम नि:कांक्षित है। इससे यह फलित हुआ कि ऐसे सांसारिक सुख की इच्छा करना, यह उक्त कांक्षा का लक्षण है | भगवती आराधना की विजयो. टीका (४४) में प्रासक्ति को कांक्षा कहा गया है । श्रागे इसे स्पष्ट करते हुए वहां यह कहा गया है कि दर्शन, व्रत, दान, देवपूजा एवं दान से उत्पन्न पुण्य के प्रसाद से मेरे लिए यह कुल, रूप, घन और स्त्री-पुत्रादि अतिशय को प्राप्त हों; इस प्रकार की जो प्रभिलाषा होती हैं। उसे कांक्षा कहा जाता है । तत्त्वार्थवार्तिक (६, २४, १ ) में नि:कांक्षित अंग के स्वरूप को प्रगट करते हुए कहा गया है कि उभय लोक सम्बन्धी विषयोपभोग की आकांक्षा न रखना अथवा मिथ्या दर्शनान्तरों की अभिलाषा न करना, इसे निःकांक्षित अंग कहा जाता है । तदनुसार उभय लोक सम्बन्धी विषयोपभोग की इच्छा को अथवा मिथ्या दर्शनों के ग्रहण की अभिलाषा को कांक्षा प्रतिचार समझना चाहिए । इस प्रकार तत्त्वार्थाधिगम भाष्य में जहां केवल विषयोपभोग की आकांक्षा को कांक्षा का लक्षण निर्दिष्ट किया गया है वहां उसकी वृत्ति में हरिभद सूरि प्रोर सिद्धसेन गणि ने इस लोक व परलोक सम्बन्धी विषयों को इच्छा के साथ विकल्प रूप में पूर्वोक्त श्रागमवचन के अनुसार ग्रहण की अभिलाषा को भी कांक्षा कहा है । जैसा कि ऊपर संकेत किया गया है, श्रावकप्रज्ञप्ति की ८७वीं गाथा के अन्तर्गत उपलब्ध है जो किसी अन्य प्राचीन ग्रन्थ का विभिन्न दर्शनों के उक्त श्रागम वाक्य होना चाहिए । जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है तत्त्वार्थवार्तिककार को कांक्षा के लक्षण में विषयोपभोग की इच्छा और दर्शनान्तरों के ग्रहण की इच्छा दोनों ही अभिप्रेत रहे हैं । अमृतचन्द्र सूरि को तत्त्वार्थवार्तिककार के समान कांक्षा के लक्षण स्वरूप इस भव में वैभव आदि की अभिलाषा तथा पर भव में चक्रवर्ती श्रादिपदों की अभिलाषा के साथ एकान्तवाद से दूषित अन्य सम्प्रदायों के ग्रहण की अभिलाषा भी अभीष्ट रही है ( पु. सि. २४) । उक्त त. वा. का अनुसरण चारित्रसार (पृ. ३) में भी किया गया है । उक्त त. भा. को छोड़कर जहां प्राय: अन्य श्वेताम्बर ग्रन्थकारों को कांक्षा से विभिन्न दर्शनों का ग्रहण अभीष्ट रहा है वहां अधिकांश दि. ग्रन्थकारों को उससे विषयोपभोगाकांक्षा अभिप्रेत रही है । श्वे. ग्रन्थों में इसके दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं- देशकांक्षा और सर्वकांक्षा । देशकांक्षा से उन्हें बौद्धादि किसी एक ही दर्शन की अभिलाषा अभिप्रेत रही है (देखिए दंशवै. नि. १८२ की हरि. वृत्ति, श्रा. प्र. की टीका ८ र धर्मबिन्दु की वृत्ति २०११ श्रादि ) | गच्छ व गण -- घवला (पु. १३, पृ. ६३) के अनुसार तीन पुरुषों के समुदाय का नाम गण र इससे अधिक पुरुषों के समुदाय का नाम गच्छ है । मूलाचार की वृत्ति (४-३२ ) में तीन पुरुषों के समुदाय को गण और सात पुरुषों के समुदाय को गच्छ कहा गया है । तत्त्वा भाष्य की सिद्धसेन विरचित वृत्ति ( ६-२४) व योगशास्त्र के स्वो विवरण ( ४-९० ) में एक प्राचार्य के नेतृत्व में रहने वाले साधु के समूह को गच्छ कहा गया है । सर्वार्थसिद्धि ( ६-२४), तत्त्वार्थाधिगम भाष्य ( ६ - २४ ) और तत्त्वार्थवार्तिक (६, २४, ८ ) श्रादि के अनुसार स्थविरों की सन्तति को गण कहा जाता है । आवश्यक नियुक्ति (२११) को हरिभद्र व मलयगिरि विरचित वृत्ति के अनुसार एक वाचना, प्राचार व क्रिया में स्थित रहने वालों के समुदाय का नाम गण है । औपपातिक सूत्र की अभय वृत्ति (२० ) और योगशास्त्र के स्वो विवरण (४-६० ) में कुलों के समुदाय को गण कहा गया है । ग्रन्थि - विशेषावश्यक भाष्य (११९३ ) में ग्रन्थि के लक्षण का निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि जिस प्रकार वृक्ष या रस्सी की कठोर व सघन गांठ अतिशय दुर्भेद्य होती है उसी प्रकार जीव का जो कर्मजनित राग-द्वेषरूप परिणाम अतिशय दुर्भेद्य होता है उसे उक्त ग्रन्थि के समान होने से ग्रन्थि कहा गया है । जब तक इस ग्रन्थि को नहीं भेदा जाता है तब तक जीव को सम्यक्त्व प्राप्त नहीं होता । २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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