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जैन लक्षणावली
होता है जो उपवास प्रादि के करने में समर्थ, साधारणतः बलवान् और शूर होता है । धवलाकार के इस अभिप्राय को चारित्रसार (पृ. ६२) में प्राय: शब्दशः प्रात्मसात् किया गया है। आचारसार (६, ४७ व ४८) में उसे कुछ और विशद किया गया है।
तत्त्वा. भाष्य (६-२२) के अनुसार छेद, अपवर्तन और अपहार ये समानार्थक शब्द हैं। यह छेद दीक्षा सम्बन्धी दिवस, पक्ष, मास और संवत्सर इनमें से किसी एक का होता है। दशवकालिक चुणि (पृ. २६) में इसी का अनुसरण किया गया दिखता है । त. भाष्यगत उक्त लक्षण का स्पष्टीकरण करते हुए उसकी व्याख्या में सिद्धसेन गणि ने कहा है कि वह छेद महाव्रतों के प्रारोपणकाल से प्रारम्भ करके गिना जाता है। जिस दिन महाव्रतों का प्रारोपण किया गया है वह उसकी आदि पर्याय कहलाती है। उसमें पंचकादि पर्याय से लेकर दस वर्ष पर्यन्त आरोपित महाव्रत का अपराध के अनुसार कभी पंचक का छेद और कभी दशक का इस प्रकार छह मास तक को पर्याय का लघु अथवा गुरु रूप में छेद किया जाता है। इस प्रकार के छेद से छेदा जाकर प्रव्रज्यादिवस को भी अपहृत करता है। योगशा. के स्वो. विवरण (४-९०) में संक्षेप में यही अभिप्राय देखा जाता है।
___ भगवती आराधना की विजयोदया टीका (गा. ६) में इस छेद के हेतु को दिखलाते हुए कहा गया है कि प्रव्रज्या की हानिरूप वह छेद असंयम से घृणा प्रगट करने के हेतु किया जाता है ।
छेदोपस्थापक, छेदोपस्थापन, छेदोवस्थापनशुद्धिसंयम और छेदोपस्थापना-ये शब्द प्रायः समान अभिप्राय के द्योतक हैं। प्रवचनसार (३, ८.६) में श्रमण के २८ मूल गुणों का निर्देश करते हए यह कहा गया है कि जो श्रमण उनमें प्रमाद से युक्त होता है-उनके परिपालन में असावधान रहता हैवह छेदोपस्थापक होता है। व्याख्याप्रज्ञप्ति (खण्ड ४, पृ. २६२) में विशेष रूप से यह कहा गया है कि जो पूरातन पर्याय को छेदकर अपने को पंचयामरूप धर्म में स्थापित करता है वह छेदोपस्थापक होता है। इस अभिप्राय की बोधक जो गाथा उक्त व्याख्याप्रज्ञप्ति में अवस्थित है वह यत्किचित् शब्दपरि. वर्तन के साथ दि. पंचसंग्रह (१-१३०) में भी उपलब्ध होती है, अभिप्राय समान ही है । इसके अतिरिक्त उसे धवला (पु. १, पृ. ३७२) में उद्धृत किया गया है तथा गोम्मटसार-जीवकाण्ड (४७०) में उसी रूप में उसे आत्मसात् किया गया है। उपर्युक्त अभिप्राय को हरिभद्र सूरि ने प्रावश्यक नि. (२१४) की वृत्ति और अनुयोगद्वार (पृ. १०४) की वृत्ति में तथा मलयगिरि ने प्रावश्यक नि. (११४) की वृत्ति में भी प्रगट किया है।
धवला (पु. १, पृ. २६९-७०) में अपने भीतर समस्त संयमभेदों को अन्तर्गत करने वाले एक ही यमस्वरूप सामायिक शुद्धिसंयम का निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि इसी एक व्रत के छेद सेदो-तीन प्रादि भेदों के निर्देशपूर्वक-व्रतों के उपस्थापन (प्रारोपण) को छेदोपस्थापनशुद्धिसंयम कहते हैं। धवलाकार के इस अभिप्राय का अनुसरण करते हुए तत्त्वार्थसार (६-४६) और अमितगतिश्रावकाचार (१-२४०) में कहा गया है कि जिस संयम में हिंसादि के भेद के साथ सावध कर्म का परित्याग अथवा व्रत का विलोप होने पर उसकी शुद्धि की जाती है उसे छेदोपस्थापन कहा जाता है। यहां छेद का अर्थ भेद अभीष्ट रहा है। इसी अभिप्राय को कुछ विस्तार के साथ बहद्रव्यसंग्रह की टीका (३५) और गो. जीवकाण्ड की जी. प्र. टीका (४७१) में भी व्यक्त किया गया है।
धवलाकार के उपयुक्त अभिप्राय की पुष्टि मूलाचार (७, ३३-३८) से होती है। वहां कहा गया है कि भगवान् अजितनाथ से लेकर पार्श्वनाथ पर्यन्त बाईस तीर्थकर एक सामायिक संयम का ही उपदेश करते हैं । परन्तु भगवान् ऋषभदेव और महावीर ये दो तीर्थकर छेदोपस्थापनसंयम का प्रतिपादन करते हैं। पांच महावतों की जो प्ररूपणा की गई है वह दूसरे को प्रतिपादन करने के लिए और एक सामायिक संयम के सुबोध के लिए की गई है। ये दो तीर्थंकर छेदोपस्थापन का उपदेश क्यों करते हैं, इसे स्पष्ट करते हुए वहां यह कहा गया है कि प्रथम तीर्थंकर के तीर्थ में शिष्य जन अतिशय सरल स्वभावी होने से कष्ट के साथ व्रत का शोधन करते हैं तथा अन्तिम तीर्थंकर के तीर्थवर्ती शिष्य कुटिल
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