Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन परम्परा का इतिहास करते हैं। यह अवस्था विशेषतः जैन योग अथवा ध्यान की अवस्था है। अहंतों के अनुयायी :
महावीर और बुद्ध से पहले भी ऐसे सम्प्रदाय थे जिनकी आस्था वेदों पर नहीं थी। अर्हत तथा अर्हत-चैत्य इन दोनों के जन्म के पहले भी पाये जाते थे। उन अर्हतों के अनुयायी 'व्रात्य' के नाम से जाने जाते थे। उन्होंने गणतंत्र राज्य की प्रथाअपनाई हुई थी। उनके अपने धर्मस्थान, अवैदिक पूजन तथा धार्मिक पथ-प्रदर्शक थे। वे अहिंसक थे तथा उनकी प्रथाएं बलिविहीन थीं। ये वे ही लोग थे जिनके साथ आर्यों को भारतवर्ष में बसने के लक्ष्य से जूझना पड़ा था। वैदिक काल में कुछ सन्त 'यति' कहलाते थे। संभवत: वे यति अवैदिक मत को माननेवाले यानी श्रमण समाज के सदस्य रहे होंगे। इसके अलावा कुछ नग्न साधुओं के भी वर्णन मिलते हैं जिनसे कठिन संन्याससाधना का अनुमान होता है। ऐसे लोग जिन्होंने त्याग को पसन्द किया और सांसारिक सुखों को तिलांजलि दे दी, श्रमण समाज अथवा अवैदिक समाज के प्रबल स्तम्भ थे। ब्राह्मण मत इससे कहीं भिन्न था। उसमें दीर्घायु, वीर सन्तान, धन, शक्ति, खाद्य एवं पेय की विपुलता तथा विपक्षियों की हार की कामना की जाती थी। अतएव ऐसा लगता है कि प्रारम्भ में त्याग के सिद्धान्त का ब्राह्मण अथवा आर्य समाज से संबंध नहीं था। जैन संस्कृति तथा द्राविड़ संस्कृति :
जैन संस्कृति तथा प्राग्वैदिक द्राविड़ संस्कृति के बीच अनेक समानताएं पाई जाती हैं। दोनों ही सरल, स्पष्ट तथा निराशा
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