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इसी संदर्भ में एक बात करनी है कि जैनदर्शन में मल में आत्मा और मोक्ष की जो संकल्पना है उसे अनेकांत दृष्टि से जान समझने की जो बात है वह आजतक यथातथ्य रूप में है । यही कारण है कि जैन साधना-पद्धति में अनेक आम्नाय या सम्प्रदाय जन्मे-पर इन शाश्वत मान्यताओं में कहीं मूल में अन्तर नहीं है। यहां भेद मात्र थोडे क्रियाकांड के भेद के कारण है । । सम्प्रदाय 'धर्म' पर हावी नहीं हो सके । जबकि अन्य दर्शनों में ही भेद है । जैसे हिंदूधर्म में हिंसा-अहिंसा दोनों धर्म के नाम पर चलने बाली क्रिया रही । शक्ति और निराकार भी एक ही धर्म के नाम पर अपने आप को सच्चा कहते रहे ।
इस संदर्भ में इतना ही समझना होगा कि धर्म और सम्प्रदाय 'नितांत पृथक तत्व है । धर्म आत्मा का स्वभाव हैं | जबकि सम्प्र दाय क्रिया का परिचात्मक । जैन धर्म क्यों ?
___ऊपर धर्म और सम्प्रदाय की चर्चा है । एक प्रश्न स्वाभा-- विक हो सकता है कि यदि जैन सम्प्रदाय है तो फिर जैनधर्म क्यों कहा गया है ? इसका उत्तर तार्किक रुप से ही नहीं पूर्ण वैज्ञानिक रूप से यो दिया जा सकता है कि जैन शब्द व्यक्तिवाचक नहीं है । जैन शब्द मूलतः जिन से बना है जिसका अर्थ है कि जिसने अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त किया है वह जिन है । अर्थात अनंत गतियो' में भौतिक विकार के कारण जो इन्द्रियां भटकाती हैं, अधोगति में ले जाती हैं उन इन्द्रियो' पर जिसने संयम के शस्त्र द्वारा उन पर विजय प्राप्त किया है वह जिन है । ऐसे जिन क्षेचली चा सीकर द्वारा प्रशीन धर्म या दर्शन को समझने वाले
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