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'स्याद्वाद' अनेक विकल्पों को दूर करता है । श्रीमद् राजचंद्र ने ठीक कहो ' करोड़ जातियों का एकही विकल्प होता है । जबकि एक अज्ञानी के करोड़ विकल्प होते हैं । '
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जो भी लोग एकांतवादी हैं वे वस्तु के धर्म-वैविध्य को समझे बिना ही अपना विरोध करते हैं । सूक्ष्मता से देखा जाय तो वस्तु विरोधी स्वभावी नहीं है, अपितु विरोध हमारी दृष्टि या समझ मात्र है । इसी नासमझी की औषधि यह ' स्यात् ' है । हिन्दू धर्म जहाँ हर वस्तु ईश्वर निर्मित मान ली वहीं एकांगी विचार पनपे | इसी संदर्भ में जाति-पांति के भेद बढ़े । इतना ही नहीं, ईश्वर को अवतारी मानने के कारण उसके सभी कृत्य लीला बन गये | वेद ईश्वर कथित माने गये, और उन्हें ही आस्तिकता व नास्तिकता का मापदंड माना | उन्हें न माननेवाले लोग या विचाधारा को नास्तिक कहकर तिरस्कार की दृष्टि से देखा गया । जिसका शिकार जैन व बौद्ध धर्म बने । जाति-पांति का वैमनस्य ईश्वर के प्रति मान्यताओं का विषम ज्वर इसीसे पनपा ।
जैन धर्म या सिद्धांत ने वस्तु को उत्पाद - व्यय एवं प्रौव्य मानते समय स्थान- काल द्रव्य-भाव के साथ परिणामी माना है । एक ही वस्तु द्रव्य के परिप्रेक्ष्य में स्थिर है तो पर्याय के परिप्रेक्ष्य में परिवर्तनशील भी है । जैसे सोना द्रव्य है - स्थिर या अविनाशी है... पर अलग अलग गहने में परिवर्तन उसका विनाश भी है | कुछ लोग यह शंका उठाते हैं किं एक ही साथ एक ही वस्तु स्थाई भी है और अस्थाई भी है यह कैसे संभव
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भूल जाते हैं कि इस कथन में द्वन्द्व या शंका नहीं है पर उसका परीक्षण द्रव्य एवं पर्याय के संदर्भ में होने से वह अमिट भी है और परिवर्तनशीलता या वैविध्य देखते हैं उसके मूल में वही गुण
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