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आत्मा को समझने का अवसर प्राप्त हो वही सामायिक है । जब साधक बाह्य समस्त क्रिया कार्यों से मुक्त बनकर मन-वचन और कर्म को एकाग्रता से बाह्य पदार्थो से मुक्त होकर आमा के साथ एकाकार स्थापित करता है तभी उसके सामायिक होती है । इस आत्म स्थिरता के होने पर वह यही चितवन करता है कि मैं स्वयं ज्ञाता, दृष्टा हूँ ज्ञेय और ज्ञाता हूं । समता का भाव ही मात्र भाव रुप रह जाता है । साधक सभी पदार्थों से, अपने पराये के भाव से मुक्त बन जाता है । अरे ! विपरीत वृत्ति रखनेवाले के प्रति भी माध्यस्थ भाव रखना है । प्रसंशा और निंदा में भी स्थिर रहता है । उसका लक्ष्य तो तीर्थकर पद की प्राप्ति ही बन जाता है। इस प्रकार सामायिक करने वाले का प्रथम लक्षण समकित भाव धारण करना है । सामायिक करने वाले का दूसरा लक्षण है राग-द्वेष से मुक्त होकर द्वादशांग वाणी में श्रद्धा रखना । वह जिन वाणी का निरंतर अध्ययन-मनन करता हुआ निश्चय आत्मप्रदेश में दृढ़ बनता जाता है । इन्द्रियविजेता बनना ही उसका मूल उद्यम बन जाता है । वह बाह्य भय या आक्रमण में भी सुमेरू सा दृढ़ होकर दृढ संयमी बनता जाता है । आचार्यों ने सच ही कहा है कि सामायिक करने वाला जब बाह्य एवं अन्तरंग समस्त पदार्थों में कषाय का निरोध करता है तभी उसे सामायिक फलती है । यहाँ हम पूरे जैनयोग की चर्चा नहीं कर पायेंगे । पर हम इतना समझ सके हैं कि सामायिक करने वाले को निलेप
और निर्लोभ भाव से रागद्वेष त्याग करके सामयिक करनी च हिंए । प्राणी मात्र के कल्याण की भावना करते हुए मैत्रीभाव को धारण करना चाहिए ।
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