Book Title: Jain Dharm Siddhant aur Aradhana
Author(s): Shekharchandra Jain
Publisher: Samanvay Prakashak

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Page 153
________________ १४४ के अध्ययन से किए-उसी विज्ञान युग का मानव उनसे दूर भाग रहा है । आहार-विहार, आचार-विचार, जीवन जीने की कला और सच्चा मार्गदर्शन स्वायाय से ही प्राप्त हो सकता है । पश्चिममुखी हम भौतिक सुखों के लिए लालायित हैं पर पश्चिम जो भौतिक सुखों से त्रस्त है वह हमारे ग्रंथो का आध्ययन कर मन की शांति के लिए स्वाध्याय सामायिक, योग-ध्यान की ओर मुड़ रहा है । हमारा दुर्भाग्य है कि हम घर के जोगी की कीमत ही नहीं आंक पाते। सत्-स्वाध्याय ही यह रामबाण औषधि है जो संयम का आनंद देकर संघर्ष से बचाती है । हम वह पाठ पढ़ना या पढाना चाहते हैं जो ऐसे नागरिक पैदा करे जो अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठावान हा कुमार्ग से धनसंचय न करें । संयमी बने । उनकी मन की शांति का विस्तार ही विश्वशांति तक विस्तृत हो यह आवश्यक है। मुझे पूरा विश्वास है कि हमारा युवावर्ग यदि जैन शास्त्रों का पठन करे तो उसकी अन्य समस्या सुलझ जायेंगी । प्रथियों से मुक्ति मिलेगी । वह एक कुशल नागरिक बन सकेगा यही अध्ययन उसे आत्मा की परख करायेगा । संभव है वह कर्मक्षय कर अमरत्व प्राप्त कर सकेगा। प्रतिक्रमण (आलोचना) प्रतिक्रमण को सामान्य अर्थ है प्रायश्चित या आत्मालोचन । अथवा मैंने जहाँ तक गति की है वहाँ प्रतिगति करके वापिस लौटना । इस शब्द में यही भावबंध निहित है कि मुझे संसार के व्यवहारिक कार्यों में जहाँ तक जाना पड़ा है अब उससे मैं वापिस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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