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कहें तो जब इन्द्रियाँ स्वविषयों से विलग होकर शुद्धात्म स्वरुप में लीन होती हैं तभी उपवास होता है । इस प्रकार व्यवहार और निश्चय के परिप्रेक्ष्य में यह तो सत्य ही है कि उपवास के अन्तर्गत इन्द्रिय संयम की मुख्यता है । इसकी साधना के प्रथम चरण में चतुर्विध आहार के त्यागको स्वीकार किया है। दिनभर भोजन न करना उपवास है और एक बार भोजन करना एकासन है । इस व्याख्या के लेकर यह तर्क या प्रश्न किया जा सकता है कि इस देश में ऐसे लाखों लोग हैं जिन्हें एक समय भी पूरा भोजन नहीं मिलता । दो- दे। दिन भूखे रहा जाते हैं । इसी प्रकार रोगिष्ठ व्यक्ति को चिकित्सक लंघन कराते हैं या किसी को कुपच के कारण भूख नहीं लगती और वह खाना नहीं खाता या कभी प्रवास आदि में भोजन उपलब्ध नहीं बनता ऐसी परिस्थितियों में एक बार खाना या भूखे रह जाना क्या एकासन या उपवास कहलायेगा ? संक्षिप्त उत्तर यही है कि ये सब एकासन या उपवास नहीं है । आगे इनका वैज्ञानिक एवं शास्त्रीय उल्लेख हो ने पर तर्क को समाधान और प्रश्न को उत्तर मिल जायेगा ।
मैं प्रारंभ में ही कह चुका हूँ कि आत्मसात होना ही उपवास है । उपवास की प्रथम विशिष्टता ही है आत्म संयम या रसना इन्द्रिय पर नियमन | समस्त प्रकार के स्वादृिष्ट और प्रिय व्यंजन उपलब्ध होते हुए भी मन को दृढ़ बना कर भोजन का प्रसन्नता पूर्वक त्याग करना ही उपवास है । ऐसे उपवास में लंघन या भुखमरी का समावेश नहीं होता । ऐसे उपवास में त्याग की भावना, भावना में प्रसन्नता का समावेश होता है। भूख पर विजय अर्थात इन्द्रियों पर विजय ! साधना में अप्रमादी बन कर दृढ होने का अभ्यास यहीं से प्रारंभ होता है ।
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