Book Title: Jain Dharm Siddhant aur Aradhana
Author(s): Shekharchandra Jain
Publisher: Samanvay Prakashak

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Page 156
________________ १४७ एकात्रचित्त होकर आत्मसाधना ही एक मात्र लक्ष्य बनने लगता है । जबकि प्रतिक्रमण में किए हुए अशुभ कर्मों का प्रायश्चित किया जाता है | परंतु मेरी दृष्टि से सामायिक में स्थिर होने की पूर्वदशा और शुद्ध भाव प्रतिक्रमण हैं । प्रतिक्रमण द्वारा परिशुद्ध मन निर्विकार और निर्भर बनता है तभी सामायिक में स्थिर हो पाता है । ऊपर उल्लेख किया है कि प्रतिक्रमण अर्थात प्रायश्चित | इस प्रायश्रित से मनमें विकार रूप स्थित अहम् गल जाता है जिसे आत्मसंशोधन का मार्ग प्रशस्त होता है । मनुष्य का सर्वाधिक दूषण तत्व अहम है - यही दूर हो जाये तो फिर उस सा सरल-तरल कौन होगा ? ऐसा सरल व्यक्ति ही भगवान का नैकटय प्राप्त करता है। इस प्रतिक्रमण को इसीलिए तप श्रेणी में माना गया है । यह प्रायश्चित जीवन जीने की दिशा और कला सिखाने वाली पद्धति है मनुष्य को अहम, फोध, परवहरण, वृत्ति, परछिद्रान्वेशण, हिंसा आदि से सद्य मुक्त बनाता है । उपवास- एकासन व्रत : यद्यपि यह शिक्षात का ही एक प्रकार है | परंतु इसकी महत्ता और स्वीकार सर्वाधिक रूपसे, विविध विधिविधानों के साथ होता है । इसलिए पृथक से चर्चा व पद्धतिका वर्णन प्रस्तुत है | साधारण प्रचलित अर्थ की दृष्टि से उपवास अर्थात भोजन का न करना किया जाता है | शब्दकोपीय अर्थ यों होगा कि उपवास अर्थात आत्मा में निवास करना । अर्थात समस्त प्रकार की एषणाओं से मुक्त होकर आत्मचिंतन में लीन होना ही उपवास की साधना करना है | व्यवहार से कहा जा सकता है कि समस्त प्रकार के भोजन का त्याग उपवास है । शास्त्रों में कहा गया है कि उप-शमन अर्थात उपवास | अर्थात इन्द्रियों पर संयम रखना दूसरे शब्दों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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