Book Title: Jain Dharm Siddhant aur Aradhana
Author(s): Shekharchandra Jain
Publisher: Samanvay Prakashak

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Page 154
________________ १४५ लौहूँ । पुन: आत्मा का सान्निध्य प्राप्त करूँ । मेरी भावना ऐसी होनी चाहिए कि मैने जो कार्य किए हैं, जो मेरे आत्मस्वभाव क प्रतिकूल थे उन से मुक्त होकर पु: आत्मरत बा । संसार से विरक्त आमार्थी निरंतर आत्मालोचन करता हुआ आत्मशुद्धि का प्रयास करता रहता है सामान्यतौर से यो समझिए कि प्रतिक्रमणार्थी संध्या के समय यह आत्मनिरीक्षण करता है कि दिन भर में कृतकारित या अनुमोदना द्वारा मेरे मन-वच । व कर्म से ऐसा कोई भी कार्य हुआ हो जिससे प्राणीमात्र के हृदय को ठेस पहुँची हो, किसी की विदारणा हुई हो तो उसका वह पश्चाताप करता है और प्रायश्चिन लेता है । इससे कृत्य अशुभ कार्यों की स्वनिंदा कर पुनः न करने की दृढ़ता प्राप्त करता है । एवं अन्य गलत कार्यों से भी बच जाता है । इससे चित्त निर्मल सरल एवं करूगा-मैत्रीमय बन जाता है । मानवता का विकास होता है । सही अर्थों में मनुष्यताका उदय एवं विस्तार होता है । यदि हर व्यक्ति अपनी त्रुटियों का स्वयं सही परीक्षण करे तो विश्व में सचमुच 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना पनप सकती है । भय या युद्ध आदि की समस्या स्वयं सुलझ सकती है । निरुक्ति के आधार पर इसका अर्थ होगा कि मेरे दोष मिथ्या हों इस प्रकार गुरु के समक्ष निवेदन करना ही प्रतिक्रमण है । प्रमदिवश हो गये दोषों को जिस प्रायश्चित के माध्यम से दूर किया जा सके-वही प्रतिक्रमण की क्रिया और भावना है । इस आम प्रदेश के साथ चिपके हुए कर्म-मल इसी अग्नि से नष्ट होते हैं । किसी भी क्रियो के अतिचार दूर होते हैं। शिष्य या साधक गुरू के समक्ष अपने दोषों को प्रकट करता है इससे उसके हृदय की सत्यता एवं ऋजुना ही प्रकट होती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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