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वह दो के प्रति लजित होता है । गुरु से प्रायश्चित लेकर उन्हें दूर भी करता है । कहा है कि प्रायश्चित रुपी अग्नि में तप्त आत्मा ही कंचन और कुंदन सा बन सकता है।
निश्चय और व्यवहार की दृष्टि से इसके दो भेद हैं । निश्चित दृष्टि से पूर्व कृत जो अनेक प्रकारके शुभाशुभ कर्म हैं, उनसे जो आत्मा स्वयं को दूर रखता हैं वह आत्मा का प्रतिक्रमण है । गगादि भावों का त्यागकर आत्म-ध्यान करना, जीवों की विराधना का त्याग कर प्रतिक्रमण में अनाचार का त्याग करके आचार में, जन्मार्ग छोड़कर सन्मार्ग में, शल्यभाव छोड़कर निःशल्य भात्र में अगुप्तिभाव को त्यागकर त्रिगुप्ति भाव में एवं आर्त शैद्र ध्यान को त्यागकर शुक्लध्यान और सम्यक भाव से जब आत्मभावना भाई जाती है तभी आत्म प्रतिक्रमण होता है । ऐसे भावों से जो प्रतिक्रमण करता है वह निश्चय रूपसे कर्मों का क्षय करके निजात्म शुद्धता प्राप्त करता है।
व्यावहारिक दृष्टि से हमारी यही भावना होनी चाहिए कि जीवन कार्यों में स्वार्थवश या प्रमादयश हिंसादिक पचपाप हुए हो तो उन्हे दूर करने का निरंतर प्रयास करें । पुन: उस ओर उन्मुख न हो इसका ध्यान रखें । इस आत्मलोचन से सद्धर्म का प्रकटीकरण होता है । इसे ध्यान की प्रारंभिक क्रिया समझनी चाहिए । पापादिक से मुक्त व्यक्ति ही आत्मस्थिरता प्राप्त कर सकता है । चित्त की एकाग्रता पा सकता है । वही कर्मों के आय का प्रयत्न कर सकता है । शास्त्रीय भाषा में कहूँ तो कर्मों के संबर की प्रथम मीढी यही प्रतिक्रमण है।
सामायिक और प्रतिक्रमण में थोड़ा मा भेद है सामायिक में
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