Book Title: Jain Dharm Siddhant aur Aradhana
Author(s): Shekharchandra Jain
Publisher: Samanvay Prakashak

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Page 151
________________ १४२ गति से अध्ययन किया है ऐसे पुरुषों का ज्ञान सूर्य की किरणों सा निर्मल होता हैं । अध्ययन एवम् मनन से मेरू जैसा निष्कम्प (अटल) अष्टमल रहित, त्रिमूढ़ता रहित सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है । स्वाध्याय करने वाला कभी नर्क या तिथंच गति को प्राप्त नहीं होता पुनश्च कहते हैं कि जिनागम जीवों के मोहरूपी मल को दूर करता है । अज्ञान का विनाश करता है और मोक्षपथ प्रशस्त करता है । स्वाध्याय को समझ कर विवेक पूर्वक जो उसका उपयोग करता है उसके कर्मों की निर्जरा होती है । स्वाध्यायी व्यक्ति में ज्ञान की वृद्धि के लिए जिज्ञासावृत्तिका होना भी आवश्यक है । ज्यों-ज्ये। जिज्ञासा का हल या समाधान प्राप्त होता जाता है त्यों-त्यों पाठक को अलौकिक आन्नद की प्राप्ति होती जाती है । जिन-वचन मन को द्विधामुक्त बनाते हैं । प्रज्ञावान बनाते हैं मनुष्य में व्याप्त अश्रद्धा, लोकमूढता, देवमूढ़ता और गुरुमूढत' का निग्रह होता है । चंचल कुतर्कयुक्त मन को शांति मिलती है। ___ आत्मानुशासन में एक सुन्दर रुपक प्रस्तुत करते हुए लिखा है यह श्रुत स्कंध रुपी वृक्ष, विविध धर्मात्मक पदार्थ रुप फूलों और फलों के भार से नत है । वचनरुपी पत्तों से आच्छादित है । विस्तृत विविध नयरुपी डालियों से भरपूर और उन्मत है । यह समीचीन एव विस्तृत मतिज्ञान रुप जल से सिंचित है । ऐसे वृक्ष पर बुद्धिमान साधुको अपने मनरुपी मर्कट को स्थिर करना चाहिए। इस विवेचन को संक्षिप्त में इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है कि स्वाध्याय में चित्त की एकाग्रता; उत्तम पठन, ज्ञान की झंगना और उसे जीवन में उतारकर मोक्षमार्ग पर आरुढ होने की भावना वाला पथिक ही सच्चा स्वाध्यायी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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