Book Title: Jain Dharm Siddhant aur Aradhana
Author(s): Shekharchandra Jain
Publisher: Samanvay Prakashak

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Page 145
________________ किंचित खिची रख कर, हाथों को पूरी तरह से नीचे लटकाये हुए रखकर, दृष्टि नासा पर रखते हुए ध्यानस्थ बनता है । इस प्रकार सामायिक में कैसे बैंठे या खड़े रहें इसकी चर्चा की। इस प्रकार बैठने या खडे रहने की वैज्ञानिकता पर विचार करें तो सिद्ध होता है जिस प्रकार यंत्र में उत्पन्न होने वाली ऊर्जा शक्ति में निरन्तर धारा प्रवाह-रुप से चक्रावित होते रहने के कारण विशेष शक्ति और तेज उत्पन्न होता हैः तेज बढ़ता है-उसी प्रकार यह शक्ति स्रोत का सिद्धांत इस शरीर पर भी लागू होता है । मनुष्य के शरीर से और सविशेष रुप से मस्तिष्क में से ऊर्जा की या तेज की किरणें निरन्तर प्रकट होती रहती हैं । शरीर के हलनचलन से इस अर्जा का नि:पात होता रहना है । दूसरे शब्दों में यह शक्ति क्षीण होती रहती है। परंतु, ध्यानस्थ मुद्रा में बैठने पर यह अद्भुत ऊर्जा बाहर न जाकर अंदर ही बढ़ती है, केन्द्रित होती है और शरीर में एक विशेष शक्ति या चेतना या जागरुकता को बढ़ाती है । जितना अधिक हम ध्यान में दृढ़ होंगे यह शक्ति उतनी ही अधिक प्रदीप्त होगी । चंचल इन्द्रियों पर संयम का अंकुश लगाती है । साधक में जव इस शक्ति का विशेष विकास होता है तब योग की भाषा में उसकी कुंडलिनी जागृत बनती हैं । सभी कमल विकसित होते हैं और वह ब्रह्मज्ञान, आत्म दर्शन, सिद्धि या केवलज्ञान को प्राप्त करता है । सामायिक में कैसे बैठे ? इसके साथ ही मन को बाँधना या केन्द्रित करना भी आवश्यक है। मन को उच्छल मुँहजार घोडे की तरह माना गया है । इन्द्रियों की विषय वासना में लिप्त यह मन निरंतर बाह्य-भौतिक सुखों की वांछा करता है उसकी प्राप्ति के लिए भटकता है । उन्हें प्राप्त नहीं कर सकने पर दुखी बनता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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