Book Title: Jain Dharm Siddhant aur Aradhana
Author(s): Shekharchandra Jain
Publisher: Samanvay Prakashak

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Page 144
________________ विश्व के सभी धर्मों के आराध्यों में एक मात्र तीर्थकरों की मूर्ति ही संपूर्ण शास्त्रीय योग-मुद्रा की प्रतीक है । साधक को भी उनी प्रकार पमासा में बैठ कर दोनें। हाथ नाभि से नीचे बायें हाथ की हथेली पर दायें हाथ की हथेली रखकर लगभग ४५ अंश का कोना बनाते हुए मेरूदण्ड को बिलकुल सीधे रख कर गर्दन को यतकिंचित खिंची हुइ रखते हुए बैठना चाहिए इस प्रकार बौठने से धीरे-धीरे सीधे बैठने की आदत बनेगी और स्वयं मन आत्मजगत में स्थिरता प्राप्त करने लगेगा, आँखें न पूरी खुली न परी बन्द पर अर्धउन्मीलित रहनी चाहिए और उसका केन्द्र (द्रष्टि का) नाक का अग्र भाग होना चाहिए । दोनों आँखों से नासाग्र पर स्थिर होना कुछ दिनों फठिन लगेगा । ललाटबिंदु या आज्ञाचक्र पर जोर पड़ने से दर्द भी होगा पर धीरे-धीरे ध्यान अन्यत्र से हटकर स्वय' इसी क्रिया पर केन्द्रित होगा । इस प्रकार ध्यानस्थ गैठने के पश्चात इस ध्यान का या आसन को दृढ़ बनाने के लिए किसी मूर्ति या तस्वीर को सामने रखना चाहिए । उत्तम तो मूर्ति ही है । इसके लिर एकान्त परभावश्यक है । यह सामायिक करने का प्रथम चरण जिस में बैठने की महत्ता है-सबसे कठिन लगेगा। पर, 'एकही माधै सब साधैं' के अनुसार इसका सपना ही आगे का मार्ग प्रशस्त होना है । दृढ़ता से इस आसन में बैठ का ध्यानस्थ व्यक्ति फुछ दिनों में ही अभ्यास को आदत में बदल कर आनन्द की अनुभूति करने लगता है। उसने शरीर को स्वतंत्र या स्वच्छन्द रखकर जिस अनुभूति को नहीं पाया-वही वह इस शरीर बद्ध अवस्था में पा सका । शरीर की विविध ग्रन्थियों में से विविध स्राव झरने लगते हैं। एक अलौकिक परिवर्तन हमारे अन्दर होने लगता है । पद्मासन के उपरांत खङ्गासन या कायोत्सर्ग की मुद्रा भी योग्य मानी गई है । माधक बिलकुल सीधा खड़ा होकर मेरुदण्ड को सीधा रखकर गर्दन के। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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