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सामायिक एवं स्वाध्याय (जैनयोग )
विश्व के प्रायः सभी धर्मों या सम्प्रदायों में ईश्वर या आत्मप्राप्ति के लिए एकाग्रचित्त होकर न म स्नरण की महत्ता का स्वीकार किया गया है । यह संभव है कि विधि-विधान में कुछ फर्क हो - पर, उद्देश्य या साध्य तो सभी का एक ही हैं । ईश्वर से दूर सौंसार सागर में भटकने का कारण मनकी चंचल वृत्ति और संसार से मुक्त होकर ईश्वर को सान्निध्य या ईश्वरश्व प्राप्त करना मन की एकाग्रता है । मूल में 'मन' में ही केन्द्र हैं । मन और इन्द्रियाँ दो मूल तत्त्व हैं । जबतक मन शासक है - इन्द्रियाँ संयमित रहती हैं । जहाँ मन शासित होता हैं वहीं इन्द्रियों का उपद्रव प्रारंभ होता है । इन्द्रियों की यही स्वच्छंदता साक्षात्कार नहीं करने देती ।
जैन दर्शन में ' सामायिक' शब्द बडा ही महत्त्वपूर्ण है । मैं
ते मानता हूं कि यह सामायिक ही योग ध्यान का जनक है । विविध प्रकार की योग-ध्यान क्रियाओं के बीज इसी सामायिक में विद्यमान हैं । सामायिक का शब्दकोपीय अर्थ इस प्रकार किया जा सकता है - समय अर्थात आत्मा का एकचित होकर चितवन करना | अर्थात आत्माराध के उत्कृष्ट उपाय के रूप में यह उत्तम क्रिया है । पूजा वगैरह में जहाँ गुणगान करके ईशाराधना की है वहाँ सामायिक में यही मौन बनकर आराधना की गहराईयों में उतरने का कथन है । सामायिक में बैठने वाला आराधक प्रारम्भ ही इस ध्यान से करता है कि वह बहिर्जगत से क्रमशः अन्तर्जगत में उतर रहा है । यही बाह्य से अंतर अर्थात जगत की यात्रा ही सामायिक है । सर्व प्रथम विचार करें कि सामायिक में कैसे बठें ।
भौतिक से आध्यात्मिक
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