Book Title: Jain Dharm Siddhant aur Aradhana
Author(s): Shekharchandra Jain
Publisher: Samanvay Prakashak

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Page 146
________________ १३७ इसकी स्थिति ठीक उस व्यक्ति की भाँति होती है-जिसे तैरना न आता हो, और पानी में कूद पड़ने पर औंधे-सीधे हाथ-पांव पटक कर दुखी होता हो । भौतिक सुखों का लालची यह मन वीतराग तीर्थ कर के दरबार में जाकर भी धन-जन के सुख की याचना करने लगता है इसलिए इस मन का भटकना छुड़ाना ही इसको स्थिर बनाना है । ध्यानस्थ बैठने का अभ्यासी ही मन की एकाग्रता बना सकता है । हम धीरे-धीरे मन से बाह्य सुत्र, लालसा, ईर्षा, क्रोध आदि भावों को निकालने का दृढ़ निश्चय करें । हम मन में यही विचारें कि बाह्य पुद्गल जगत नश्वर है । प्राप्त या प्राप्त संपत्ति मेरा अन्तिम लक्ष्य नहीं । धन, जन मेरे साध्य नहीं हैं। मुझे इससे ऊपर उठकर पहले मनमें प्रेम, करुणा, क्षमा, दया उत्पन्न करना है । संसार से मुक्त होने के लिए बाह्य सुखों को क्रमशः कम करते-करते उन्हें नितांत छोड़ना है । मेरा अन्तिम लक्ष्य आस्मसिद्धि है । इस प्रकार की बिचार धारा हमें एकाग्र बनाती है । इसी प्रकार के चितन से हम चित्त की एकाग्रता प्राप्त कर सकते हैं । यदि चित्त एकाय न हुआ तो फिर हाथ में माला व मुँह में राम नाम तो चलता रहेगा । परिणाम शून्य ही रहेगा । महत्ता माला या नाम की नहीं मनकी एकाग्रता की है । जो साधक चित्त की सम्पूर्ण एकान्नता को प्राप्त हो जाता है बही जिन या जिनेन्द्रिय वन पाता है । आधुनिक मनोविज्ञान भी इस चित्तको महत्ता का स्वीकार कर चुका है । गीताकारने भी मनुष्य के संसार और मुक्ति का मूलकारण मन की चंचलता और एकाग्रता को ही माना है । इस प्रकार तन और मन की एकाग्रता ही सामायिक का प्रथम चरण है । सामायिक क्या है ? सामायिक का अर्थ है - समय या कालावधि अर्थात एक साथ आनना या गमन करना । दूसरा अर्थ है आत्मा । जिस क्रिया से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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