Book Title: Jain Dharm Siddhant aur Aradhana
Author(s): Shekharchandra Jain
Publisher: Samanvay Prakashak

View full book text
Previous | Next

Page 142
________________ 'शब्द' से ही प्रतीत होता है कि हम अपनी आराधना या पूजा से आत्मशांति एवम् विश्वशांति की भावना भाते हैं । इस शांतिपाठ के माध्यम से हम प्रथम पूजा आदि ईश-गुणगान में कोई त्रुटि रही हो अल्पमनि या बुद्धिहीन समझकर हे प्रभु क्षमा करना । वह अपने आप को ज्ञान मतिहीन कहता है । इस कथन में वह अपनी लघुता प्रस्तुत करके हकीकत में तो अपनी विनम्रताही प्रकट करता है। और सच भी है इतनी पूजा-अर्चना के पश्चात यदि इस पूजाका गुण प्रकट न हो तो फिर सारी क्रिया ही शून्य हैं । दूसरे वह स्वयं के साथ समाज, राष्ट्र और विश्व के मानव के सुख-शांति की भावना व्यक्त करता है | समयपर वर्षा, उत्पादन, वितरण, निरोग, न्याय आदि के साथ सब के सुखों की प्रार्थना करता है | इससे भी आगे बढकर प्राणीमात्र की या जीवमात्र की शांति की प्रार्थना करता है। उसकी प्रार्थना करता है । उसकी प्रार्थना है कि यह धरती शस्य श्यामला रहे, लोग आधि-व्याधि से मुक्त हो । सभी को प्रसन्नता से जीने को अवसर प्राप्त हो । लोग हिंसा, चोरी, परिग्रह से बचकर आजीविका की प्राप्ति करें । व्यक्ति और समाज सत्यनिष्ठ कर्तव्य परायण और परोपकारी बने । राजा प्रजा में परस्पर प्रेम और विश्वास बढ़े । जिओ और जीने दो की भावना पनपे । मैत्री और कल्याण के स्त्रोत बहते रहें । धर्म भावना का प्रसारण हो । इस प्रकार सबकी शांति की बौछा करने वाला आत्मशांति के लिए पंचत्रों के पालन में तल्लीन बनता है। मन और आत्मा की शांति निरंतर प्राप्त करता है । हमारी समस्त आराधना का सेतु स्वय' से विस्तरता हुआ समष्टि तक रहता है । यदि ऐसी भावना विश्व का हर व्यक्ति या कम से कम जिनके हाथों में सत्ता का दण्ड है- वे ही करने लगें तो विश्व से युद्ध-भय, घृणा दूर हो सकता है। यही कारण है कि जैनधर्म की उदार भावनायें उसे विश्वधर्म बनने का गौरव प्रदान करती हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160