Book Title: Jain Dharm Siddhant aur Aradhana
Author(s): Shekharchandra Jain
Publisher: Samanvay Prakashak

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Page 140
________________ १३१ शरीर, धन-धान्य स्वतः प्राप्त होते हैं । परंतु, इस प्राप्ति से भी निर्मोही रहता है । इन्हें पर द्रव्य समझता हुआ निश्चय पूजा अर्थात आत्मा में ही रमण करता है । व्यवहारिक दृष्टि से इन भावों सहित पूजा करनेवाला सावत्र वृत्ति में सरल, विचारों में स्वच्छ और आचरण में सात्विक होता है । आरती : आरती का प्रचलन कब और कहाँ से हुआ इसके विषय में अनेक लोग अनेक प्रकार का इतिहास प्रस्तुत करते हैं । यहाँ हमारा प्रतिपाद्य इतिहास में न होकर आरती के अन्तर्गत निहित भावना से है । भारतीय धर्मों में प्रायः प्रातः - काल एवं सायंकाल आराध्य की आरती उतारने का प्रचलन है । दीप जलाकर हम इष्टदेव या आराध्यदेव की स्तुति या गुणगान गाते हैं । सस्वर गाजेबाजे के साथ आरती - गायन करते हैं । प्रश्न हो सकता है कि आरती क्यों करते हैं ? सामान्यतः अर्थ यों किया जा सकता है कि आर्त या दुखी भावों से या दुखों से छुटकारा पाने के लिए किया गया ईश्वर या आराध्य का गुणगान । दीप जलाने के अन्तर्गत यह भाव रहा होगा कि हे प्रभु मैं दुःखी हूँ । जिस प्रकार प्रज्वलित दीप अंधकार का विनाश करता है । उसी प्रकार आपकी भक्ति रूपी दीपशिखा से मेरा दुख दूर हो-दुख रूपी अंधकार का क्षय हो । 'दीपशिखा' की अनि सूर्य का प्रतीक है । अर्थात् सूर्य की तरह प्रकाश, ओज एवं शक्ति देनेवाला तत्र है । आराध्य स्वयं सूर्य से तेज पुजवान है । उनके इसी तेज तत्र का मुझमें अवतरण हो-ऐसी भावना रहती है । मनुष्य संसार के त्रिविध दुखों से पीड़ित है । कर्मबन्ध के कारण एवं सम्यग्ज्ञान के अभाव से दुखी होकर चतुर्गतियों का भ्रमण कर रहा है | मनुष्य तन-मन से पीड़ित होता हुआ अनेक यातनाओं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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