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त्रिव्याधि से मुक्त होकर आत्मसुत्र की शीतलता प्राप्त करे । पुष्पे का समर्पण यही प्रेरणा देता है कि संसार के दैहिक भागविलालों में डूबा मैं काम बाणां से विद्ध हूँ-इस काम के कीचड़ से ऊपर ठकर मैं कमल-सा उर्ध्वगामी आत्मम्वरूपी बनें । ब्रह्मचारी अर्थात देहिक सुख से ऊपर उठकर ब्रह्म अर्थात् आ'मा में चरनेवाला निवास करनेवाला शुद्ध स्वरूपी बनूँ । जारी यह स्मरण करते हुए कि इस संसार में अनेक योनियों में जन्म-मरण के चक्कर में फंसा रहा' अनेक भाग्य पदार्थों को खाकर भी तृप्त नहीं हुआ । मेरी
और शृगार की क्षुधा की शांत नहीं हुई । इस पेट की भूख और पदार्थों की भूख या तृष्णा के लिए मैंने अनेक कुकर्म किए । वह यह संकल्पन करता है कि हे भगवान ! अब इस भूख से छुटकारा दिलवाकर अक्षयपद प्राप्त कराओ-जिससे यह सभी भूखे मिट जाये । यह जीव अनादि-अनन्त से भ्रम, मिथ्या व के कारण संसार, जन्म-मरण आदि के अंधकार में भटक रहा है । सत असत को परख ही नहीं सका । हे प्रभु ! आप जिस प्रकार केवल ज्ञान रूपी दीपक से प्रकाशित होकर झिलमिला रहे हो उसी तरह मंग आत्मदीप भी प्रज्वलित बने मैं आत्मप्रकाश के आलोक में मोक्ष मार्ग ढूँढ़ सकूँ । इसी भावना के आलोक में दीप समर्पण करते हैं । धूप-पुजा यही निर्देश करती हैं कि यह जीव या मैं अष्ट कमों से बद्ध हूँ। ये इतने जटिल होकर चिपके हैं कि स्वयम् में स्थिर नहीं रहने देते । ऐसे कर्मों का विनाश हो । 'फल' पुजा करते समय साधक उत्तम मोक्ष पद प्राप्ति की भावना करता है। उसे सिद्धत्व की कामना है।
इस प्रकार इन भावनाओं के संदर्भ में एकचित्त होकर यदि पूजा की जाये तो निश्चय से पुजारी या भक्त या साधक उत्तम इण्य-लक्ष्मी को प्राप्त करता है। इससे उसे उत्तम. कुल, गति,
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