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बढ़कर निश्चय या आत्माजा में प्रतिष्ठित हो जाता है । यही आत्मजा में प्रतिष्ठित होना मुक्ति की ओर अग्रसर होना है । व्यवहार पूजा का उद्देश्य मात्र पुण्य वध नहीं है क्योकिं पुण्य भी बंध है । उस बंध से भी आत्मा को मुक्त होना है। इस व्यवहार पुजा का अर्थ क्रमशः निश्चय पुजा अर्थात आत्मपुजा में प्रवेश करने की प्रक्रिया ही समझनी चाहिये । निश्चय पुजा साधक की वह प्राप्त अवस्था हैं जहाँ वह इस स्थित में पहुँच जाता है कि जो परमात्मा है । वह मैं हूँ। मैं हू वही परमात्मा है । यह अद्वैत भाव पनपता है । मैं ही अपनी उपासना का योग्य पात्र हूं । इस प्रकार आराधक और आराध्य कर एकत्व भाव सघता है । मन भगवान आत्माराम के सान्निध्य का अनुभव करता है । समरस बनता है ।
व्यवहार पुजा भी मुख्य दो रूपों में की जाती है-(१) भावपुजा (२) द्रव्य पुजो ।
वसुनंदी श्रावकाचार में पुजा के-नाम, स्थापना, द्रन्य, क्षेत्र, काल और भाव छह भेद किए हैं । इन भेदें। की चर्चा यथास्थानों पर चलती रहेगी।
भावपूजा में पुजा करनेवाला अष्ट मंगल द्रव्य से भगवान की पुजा नहीं करता, परन्तु मन में ही अर्हत भगवान के गुणों का चिन्तवन करता है; और सूखे द्रव्य चावल आदि से पुजन करता है। बीस पन्थ में केसर से, श्वेतांबर आम्नाथ में केसर या वासक्षेप से पुजन करते हैं ।
द्रव्यपुजन में साधक द्रव्य (अष्ट प्रकार की) से भगवान की पुजा करता है । प्रश्न हो सकता है कि जब एक ही गुणगान, चितवन करना है तो फिर द्रव्य से करो या भाव से-क्या फर्क पड़ता हैं ? मूल तो गुणगान करना ही हैं । मेरा अनुमान यह है
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