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जन्म-मरण से सदैव का मुक्त ऐसे सिद्ध अतीन्द्रिय ज्ञान को प्राप्त करते हैं।
प्रश्न हो सकता है कि अरिहंत और सिद्ध में क्या भेद ? उत्तर यो होगा कि जिन्होंने चार घातिया कर्मों का क्षय कर केवल ज्ञान प्राप्त किया है । जो संसार को सन व शरण में मार्गदशन देते हैं । जो स्व के साथ पर के उपकार का मार्ग प्रशस्त करते हैं। जबकि ये ही अरिहंत सब शेष अघातिया कर्मों का नाश कर समाधिस्थ होकर मोक्ष पाकर सिद्ध शिला पर स्थायी हो जाते हैं तव सिद्ध बन जाते हैं । वैसे इतना ही भेद कहा जा सकता है कि एक शरीरी हैं दूसरे अशरीरी ।
णमो आयरियाण'' अर्थात् आचार्यों को नमस्कार करते हैं । आचार्य अध्यापक एवं मुनि वर्ग के बारे में जैनधर्म में विशेष सूक्ष्मता से प्रतिपादन हुआ है | यह भेद-विभेद ओचार की अपेक्षा से किया गया है । आचार्य अर्थात 'जिन' द्वारा प्रणीत मार्ग का वह उच्च साधना में स्थित साधू जो अन्य साधुओं को दीक्षा प्रदान कर सकता हो । उनके दोषों का निवारण कर सकता हो । अपने विशिष्ट गुणों से वे मुनिसंघ के नायक होते हैं। वीतरागता के कारण इनका पंचपरमेष्ठी में स्थान होता है। ऐसे मुनि पांच प्रकार के आचार, विचारों का (दर्शन, ज्ञान, चारित्र, वीर्थ एवं तप) पालन करें व करावें । शिष्यों को वीतराग मार्ग का उपदेश दें । इनके आचार अन्य साथी साधुओं के लिए अनुकरणीय बनते हैं । धवला में कहा है-'प्रवचन रुपी समृद्धि-जल के मध्य भाग में स्नान करने से अर्थात परमात्मा के परिपूर्ण अभ्यास और स्वानुभव से जिनकी बुद्धि निर्मल बनी है । जो मेरु की भाँति अडोल हैं, शूरवीर हैं सिंह की तरह निर्भीक हैं जो देश कुल जाति से
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