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भावों की उद्भावना एवं ऋजुता का प्रादुर्भाव । जब अहम् का तिरोहण हो जाता है तभी हम पूज्यभावों की सरलता से हल्केफुल्के एवं प्रसन्न होने लगते हैं । निरंतर एक ही भाव हीलोरे लेने लगता है कि तहो ! मैं निर्भार होकर प्रभू की भक्ति, आराधना में लीन होऊँगा । वीतराग देव के चरणों में नतमस्तक होकर गुणगान करूँगा । इस प्रकार के भाव चित्त में उपत्न्न होते ही अंदर की ग्रंथियों का स्त्राव स्वतः बदल जाता है । निरर्थक विचारों का तिरोहण हो जाता है । सर्व कल्याण के भाव जागने लगते हैं। विचारों का यह परिवर्तन शरीर विज्ञान एवं मनोविज्ञान की दृष्टि से बहुत बड़ा परिवर्तन है । इस प्रकार आत्म शांति का पहला द्वारा खुलता है- पूजा के लिए प्रस्तुत होने की भावना भाने से ही ।
गृहस्थ के पट्कर्मों में प्रधान कर्म या कर्तव्य के रुपमें पूजा को स्थान मिला है । इस राग-द्वेपमय संसार में अनेक आरंभ और परिग्रहों से ग्रस्त-गृहस्थ जब इन वीतरागी पंचपरमेष्ठी प्रतिमाओं के आश्रय में अपने सद्भावों को पूजा के रूप में लेकर पहुँचता हैं । शुद्ध भावों से पूजा में लीन होता है तो उसके असंख्यात बद्ध कर्मों की निर्जरा हो जाती है सच्चा श्रावक ही वह है जो देव-शास्त्र एवं गुरु की पूजा करता है | अहंत देव की वह मंत्रसिद्धि के प्रतीक बाजाक्षरें। द्वारा आह्वान करता है । अपने निकट सान्निध्य में उनकी कल्पना करके उन जैसाही बनने की संकल्पना करता है । वह सिद्धों का स्मरण करता है और उस सिद्वत्व की प्राप्ति के लिए वर्तमान में जो अर्हत स्वरुप हैं-उन आचार्य-उपाध्याय एवं साधुओं का आहवान करता है । पूजा किसी संसारी सुख के लिए नहीं की जाती, अपितु संसार के आरंभ, परिग्रह जैसे कार्यो-भावों की तिलांजलि के लिए की जाती है ।
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