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धूनी रमाई हो | जो आत्मरत या आत्मा में लीन होने को निरंतर प्रयत्नशील हो । सन्यासी का मतलब ही है कि जो सत् को न्यास के रुप में-अर्थात आत्मा के सच्चे स्वरुप को देखने समझने का प्रयास करे मुनि भी वही है जो मौन भाव को धारण कर आत्मरत हो रहा है । चारित्र के रूप में पंच महाव्रत, पंचसमिति एव अठ्ठाईस मूलगुणों का धारक चारित्रपालक हो । यद्यपि आचार्य, उपाध्याय एवं साधू चारित्र धारण की दृष्टि से समान ही हैं । परंतु संघकृत कार्य एव' चारित्र की उत्तरोत्तर प्रगति से उपर की श्रेणियों में विभाजन किया गया है । साधू अन्य सोधू को उपदेश या दीक्षा नहीं देता । पर, स्वय' चारित्र की दृढ़ता में लगता है व धर्मावलंबियों को प्रोत्साहित करता है । धवला में कहा है-जो सिंह-सा पराक्रमी, हाथी-सा स्वाभिमानी, वृषभ-सा भद्र प्रकृतिवाला, मृग-सा सरल, गोचरी वृत्तिवाला सूर्य-सा तेजस्वी, सागर-सा गंभीर मेरु-सा अडिग, चन्द्रमा-सा शांतिदायकः मणि सा प्रभा पुँजधारी समस्त कष्टों का सहने वाला, सांर की भाँति अनियत वसतिका में निवास करने वाला, आकाश सा निर्लेप एवं अहर्निश परमपद की प्राप्ति का अन्वेषण करने वाला साधू है । जो, निरारम्भी निष्परिग्रही ज्ञान ध्यान में रत तत्व में श्रद्धावान होता है ।
ऊपर हमने जिन पंचमरमेष्ठी को नमस्कार किया । जिनके नाम एवं पदगत लक्षणों को जाना, इससे वह स्पष्टता होती है कि यह मंत्र व्यक्ति का नहीं गुणा का मंत्र है । इसकी दृष्टि अतिविशाल है। उपरोक्त लक्षण जिस देव या गुरु में हैं। वे सभी वंदनीय हैं । इस दृष्टि से यह मंत्र मात्र जनों का नहीं-प्राणी मात्र का हो सकता है। इसमें व्यक्ति से अधिक गुणों की वंदना आराधना है । हम इन गुणों की प्राप्ति के लिए ही मंत्र का जाप करें ।
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