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होते ही निजात्मा स्वभाव प्रकट होता है यही सम्यग्दर्शन है । मोहनीय कर्म का अभाव उपशम क्षय और क्षयोपशम से होता है ।
इस सम्यग्दर्शन के आठ अंग या भेद हैं
(१) निःशंकित (२) निष्कांक्षित (३) निर्विचिकित्सा ( ४ ) अमूढदृष्टि (५) उपगूहन (६) स्थितिकरण (७) वात्सल्य (८) प्रभावना ।
सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिए या जिसे प्राप्त हो गया हैं ऐसा जीव सच्चे तत्त्वों पर निःशंकभाव से श्रद्धा करता है । आत्मार्थी जीवने जिस सम्यक् मार्ग को ग्रहण किया है उसमें दुविधा नहीं होनी चाहिए, तभी आस्था दृढ़ हो सकती है ।
सच्चे मार्ग पर या देव शास्त्र गुरु पर श्रद्धा करते हुए हमें किसी भी प्रकार के भौतिक सुखों की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए । हमारी साधना का साध्य आत्मा की प्राप्ति या मोक्ष की उपलब्धि होनी चाहिए । संसार के सुख परिवार आदि से पूर्व निष्काम भाव रखना चाहिए । सकाम (संसार के सुख) आराधना कभी भी पथभ्रष्ट करा सकती है । आकांक्षा से काम करनेवाला अधिक समय तक धैर्य नहीं रख सकता । आकांक्षा की अपूर्ति या विलंब उसमें अश्रद्धा उत्पन्न कर सकता है । ऐसा प्राणी सत्मार्ग से च्युत हो जाता है ।
सम्यग्दृष्टि जीव का हृदय तो वात्सल्य के निर्मल जल से भरा होता है । वह रोगी दरिद्री आदि को देखकर घृणा नहीं करता । वह यही सोचता है कि कर्मों के फल हैं । ऐसा व्यक्ति निर्विचकित्सा माव से बाह्य रोगादि को न देखकर आन्तरिक गुणों के वैभव को देखता है ।
सम्यग्दृष्टि जीव की बुद्धि परिमाणित सद् असद का निर्णय करने वाली होती है । उसकी मूढ़ दृष्टि का विलय हो जाता है ।
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